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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 26/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्निः, हिरण्यम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - हिरण्यधारण सूक्त
यद्धिर॑ण्यं॒ सूर्ये॑ण सु॒वर्णं॑ प्र॒जाव॑न्तो॒ मन॑वः॒ पूर्व॑ ईषि॒रे। तत्त्वा॑ च॒न्द्रं वर्च॑सा॒ सं सृ॑ज॒त्यायु॑ष्मान्भवति॒ यो बि॒भर्ति॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। हिर॑ण्यम्। सूर्ये॑ण। सु॒ऽवर्ण॑म्। प्र॒जाऽव॑न्तः। मन॑वः। पूर्वे॑। ई॒षि॒रे। तत् । त्वा॒। च॒न्द्रम्। वर्च॑सा। सम्। सृ॒ज॒ति॒। आयु॑ष्मान्। भ॒व॒ति॒। यः। बि॒भर्ति॑ ॥२६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्धिरण्यं सूर्येण सुवर्णं प्रजावन्तो मनवः पूर्व ईषिरे। तत्त्वा चन्द्रं वर्चसा सं सृजत्यायुष्मान्भवति यो बिभर्ति ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। हिरण्यम्। सूर्येण। सुऽवर्णम्। प्रजाऽवन्तः। मनवः। पूर्वे। ईषिरे। तत् । त्वा। चन्द्रम्। वर्चसा। सम्। सृजति। आयुष्मान्। भवति। यः। बिभर्ति ॥२६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 26; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(सूर्येण) सूर्यसदृश तेजस्वी आदित्य ब्रह्मचारी द्वारा किये गये (सुवर्णम्) उत्तम रूपवाले (यत्) जिस (हिरण्यम्) वीर्य-तत्त्व को (पूर्वे) अनादिकाल के (प्रजावन्तः) श्रेष्ठ सन्तानें चाहनेवाले (मनवः) मनस्वी सद्गृहस्थी (ईषिरे) ब्रह्मचर्यपूर्वक प्राप्त करते रहते हैं, (तत्) वह (चन्द्रम्) आह्लादकारी और दीप्तिप्रद वीर्य-तत्त्व (त्वा) तुझे (वर्चसा) तेज और दीप्ति के साथ (सं सृजति) सम्बद्ध करता है। (यः) जो कोई (बिभर्ति) वीर्य-तत्त्व का भरण-पोषण करता है, वह (आयुष्मान्) स्वस्थ और दीर्घ आयु वाला (भवति) होता है।
टिप्पणी -
[चन्द्रम्= चदि आह्लादे। ईषिरे=ईष् गतौ। गतेः त्रयोऽर्थाः—ज्ञानं गतिः प्राप्तिश्च।]