अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 28/ मन्त्र 6
छि॒न्द्धि द॑र्भ स॒पत्ना॑न्मे छि॒न्द्धि मे॑ पृतनाय॒तः। छि॒न्द्धि मे॒ सर्वा॑न्दु॒र्हार्दो॑ छि॒न्द्धि मे॑ द्विष॒तो म॑णे ॥
स्वर सहित पद पाठछि॒न्द्धि। द॒र्भ॒। स॒ऽपत्ना॑न्। मे॒। छि॒न्द्धि। मे॒। पृ॒त॒ना॒ऽय॒तः। छि॒न्द्धि। मे॒। सर्वा॑न्। दुः॒ऽहार्दा॑न्। छि॒न्द्धि। मे॒। द्वि॒ष॒तः। म॒णे॒ ॥२८.६॥
स्वर रहित मन्त्र
छिन्द्धि दर्भ सपत्नान्मे छिन्द्धि मे पृतनायतः। छिन्द्धि मे सर्वान्दुर्हार्दो छिन्द्धि मे द्विषतो मणे ॥
स्वर रहित पद पाठछिन्द्धि। दर्भ। सऽपत्नान्। मे। छिन्द्धि। मे। पृतनाऽयतः। छिन्द्धि। मे। सर्वान्। दुःऽहार्दान्। छिन्द्धि। मे। द्विषतः। मणे ॥२८.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 28; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(दर्भ) हे शत्रुविदारक, (मणे) शिरोमणि सेनापति! (मे) मुझ राजा के (सपत्नान्) आन्तरिक-विद्रोहियों को (छिन्धि) छिन्न-भिन्न कर। (मे) मुझ राजा के राष्ट्र पर (पृतनायतः) सेना द्वारा आक्रमण चाहनेवालों को (छिन्धि) भिन्न-भिन्न कर। (मे) मुझ राजा के (सर्वान्) सब (दुर्हार्दान्) दुष्ट हार्दिक भावनाओं वालों को (छिन्धि) छिन्न-भिन्न कर। (मे) मेरे (द्विषतः) अमित्रों को (छिन्धि) छिन्न-भिन्ने कर।