अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 28/ मन्त्र 10
विध्य॑ दर्भ स॒पत्ना॑न्मे॒ विध्य॑ मे पृतनाय॒तः। विध्य॑ मे॒ सर्वा॑न्दु॒र्हार्दो॒ विध्य॑ मे द्विष॒तो म॑णे ॥
स्वर सहित पद पाठविध्य॑। द॒र्भ॒। स॒ऽपत्ना॑न्। मे॒। विध्य॑। मे॒। पृ॒त॒ना॒ऽय॒तः। विध्य॑। मे॒। सर्वा॑न्। दुः॒ऽहार्दः॑। विध्य॑। मे॒। द्वि॒ष॒तः। म॒णे॒ ॥२८.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
विध्य दर्भ सपत्नान्मे विध्य मे पृतनायतः। विध्य मे सर्वान्दुर्हार्दो विध्य मे द्विषतो मणे ॥
स्वर रहित पद पाठविध्य। दर्भ। सऽपत्नान्। मे। विध्य। मे। पृतनाऽयतः। विध्य। मे। सर्वान्। दुःऽहार्दः। विध्य। मे। द्विषतः। मणे ॥२८.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 28; मन्त्र » 10
भाषार्थ -
(दर्भ) हे शत्रुविदारक, (मणे) शिरोमणि सेनापति! (मे) मेरे (सपत्नान्) आन्तरिक-विद्रोहियों को (विध्य) वेंध डाल। (मे) मेरे राष्ट्र पर (पृतनायतः) सेना द्वारा आक्रमण चाहनेवालों को (विध्य) वेंध डाल। (मे) मेरे (सर्वान्) सब (दुर्हार्दः) दुष्ट-हार्दिक भावनाओंवालों को (विध्य) वेंध डाल। (मे) मेरे (द्विषतः) द्वेषी=अमित्रों को (विध्य) वेंध डाल।
टिप्पणी -
[भेद-नीति द्वारा शत्रुपक्ष में फूट डाल देना, तथा उग्र अपराधों में उग्र उपायों का अवलम्ब लेना वेदानुमोदित है। व्यक्ति द्वारा किये उग्र अपराध में, व्यक्ति को मृत्युदण्ड देना, वर्तमान में भी सभ्य राष्ट्रों द्वारा अनुमोदित है। इसी प्रकार अनपराधी राष्ट्र पर, परराष्ट्र द्वारा किये गये उग्र अपराधों में, परराष्ट्र की सेना-आदि को भी उग्र दण्ड देना वर्तमान सभ्य राष्ट्रों द्वारा अनुमोदित है। उग्र दण्ड देने से अपराधों की पुनरावृत्ति रुक जा सकती है।]