अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 29/ मन्त्र 1
निक्ष॑ दर्भ स॒पत्ना॑न्मे॒ निक्ष॑ मे पृतनाय॒तः। निक्ष॑ मे॒ सर्वा॑न्दु॒र्हार्दो॒ निक्ष॑ मे द्विष॒तो म॑णे ॥
स्वर सहित पद पाठनिक्ष॑। द॒र्भ॒। स॒ऽपत्ना॑न्। मे॒। निक्ष॑। मे॒। पृ॒त॒ना॒ऽय॒तः। निक्ष॑। मे॒। सर्वा॑न्। दुः॒ऽहार्दः॑। निक्ष॑। मे॒। द्वि॒ष॒तः। म॒णे॒ ॥२९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
निक्ष दर्भ सपत्नान्मे निक्ष मे पृतनायतः। निक्ष मे सर्वान्दुर्हार्दो निक्ष मे द्विषतो मणे ॥
स्वर रहित पद पाठनिक्ष। दर्भ। सऽपत्नान्। मे। निक्ष। मे। पृतनाऽयतः। निक्ष। मे। सर्वान्। दुःऽहार्दः। निक्ष। मे। द्विषतः। मणे ॥२९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 29; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(दर्भ) हे शत्रुविदारक, (मणे) शिरोमणि सेनापति! (मे) मेरे (सपत्नान्) आन्तरिक-विद्रोहियों का (निक्ष) चुम्बन कर। (मे) मेरे राष्ट्र पर (पृतनायतः) सेना द्वारा आक्रमण चाहनेवालों का (निक्ष) चुम्बन कर। (मे) मेरे (सर्वान्) सब (दुर्हार्दः) दुष्ट-हार्दिक भावनाओं वालों का (निक्ष) चुम्बन कर। (मे) मेरे (द्विषतः) द्वेषी=अमित्रों का (निक्ष) चुम्बक कर।
टिप्पणी -
[निक्ष=निक्ष चुम्बने। शत्रु को अपने अनुकूल करने के चार उपाय हैं— साम, दान, दण्ड और भेद। साम का अभिप्राय है— शान्ति, समझौते, परस्पर वार्तालाप तथा सन्धि आदि शान्त उपायों का वर्तना। दान का अभिप्राय है धन द्वारा सहायता कर शत्रु को अपने अनुकूल करना। इन दो उपायों को निक्ष-उपाय या चुम्बन-उपाय कहा है। अर्थात् जैसे चुम्बक-पत्थर निज शक्ति द्वारा लोहे का आकर्षण करता है, वैसे राजा उदासीन और विरोधियों को अपनी और आकृष्ट करे। दण्ड अर्थात् युद्धरूप उपाय से पूर्व—साम दान और भेद उपायों का अवलम्ब करना श्रेयस्कर है। अथवा निक्ष=निक्ष्व (अथर्व० ८.३.१५), नितरां क्षीणान् कुरु।]