अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
तृ॒न्द्धि द॑र्भ स॒पत्ना॑न्मे तृ॒न्द्धि मे॑ पृतनाय॒तः। तृ॒न्द्धि मे॒ सर्वा॑न्दु॒र्हार्दो॑ तृ॒न्द्धि मे॑ द्विष॒तो म॑णे ॥
स्वर सहित पद पाठतृ॒न्द्धि। द॒र्भ॒। स॒ऽपत्ना॑न्। मे॒। तृ॒न्द्धि। मे॒। पृ॒त॒ना॒ऽय॒तः। तृ॒न्द्धि। मे॒। सर्वा॑न्। दुः॒ऽहार्दः॑। तृ॒न्द्धि। मे॒। द्वि॒ष॒तः। म॒णे॒ ॥२९.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तृन्द्धि दर्भ सपत्नान्मे तृन्द्धि मे पृतनायतः। तृन्द्धि मे सर्वान्दुर्हार्दो तृन्द्धि मे द्विषतो मणे ॥
स्वर रहित पद पाठतृन्द्धि। दर्भ। सऽपत्नान्। मे। तृन्द्धि। मे। पृतनाऽयतः। तृन्द्धि। मे। सर्वान्। दुःऽहार्दः। तृन्द्धि। मे। द्विषतः। मणे ॥२९.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(दर्भ) हे शत्रुविदारक, (मणे) शिरोमणि सेनापति! (मे) मेरे (सपत्नान्) आन्तरिक-विद्रोहियों का (तृन्धि) तू अनादर किया कर। (मे) मेरे राष्ट्र पर (पृतनायतः) सेना द्वारा आक्रमण चाहनेवालों का तू (तृन्धि) अनादर किया कर। (मे) मेरे (सर्वान्) सब (दुर्हार्दः) दुष्ट-हार्दिक भावनाओंवालों का (तृन्धि) अनादर किया कर। (मे) मेरे (द्विषतः) द्वेषी= अमित्रों का (तृन्धि) तू अनादर किया कर।
टिप्पणी -
[तृन्द्धि= तृदिर् अनादरे। अनादर अर्थात् आदर न करना भी साम उपाय है, उग्र उपाय नहीं। अथवा तृदिर् हिंसायाम्। अर्थात् उग्रउपाय की आवश्यकता में इन की हिंसा कर।]