अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 29/ मन्त्र 9
ज॒हि द॑र्भ स॒पत्ना॑न्मे ज॒हि मे॑ पृतनाय॒तः। ज॒हि मे॒ सर्वा॑न्दु॒र्हार्दो॑ ज॒हि मे॑ द्विष॒तो म॑णे ॥
स्वर सहित पद पाठज॒हि॒। द॒र्भ॒। स॒ऽपत्ना॑न्। मे॒। ज॒हि। मे॒। पृ॒त॒ना॒ऽय॒तः। ज॒हि। मे॒। सर्वा॑न्। दुः॒ऽहार्दः॑। ज॒हि। मे॒। द्वि॒ष॒तः। म॒णे॒ ॥२९.९॥
स्वर रहित मन्त्र
जहि दर्भ सपत्नान्मे जहि मे पृतनायतः। जहि मे सर्वान्दुर्हार्दो जहि मे द्विषतो मणे ॥
स्वर रहित पद पाठजहि। दर्भ। सऽपत्नान्। मे। जहि। मे। पृतनाऽयतः। जहि। मे। सर्वान्। दुःऽहार्दः। जहि। मे। द्विषतः। मणे ॥२९.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 29; मन्त्र » 9
भाषार्थ -
(दर्भ) हे शत्रुविदारक, (मणे) शिरोमणि सेनापति! तू (मे) मेरे (सपत्नान्) आन्तरिक-विद्रोहियों को (जहि) हनन कर (मे) मेरे राष्ट्र पर (पृतनायतः) सेना द्वारा आक्रमण चाहने वालों को (जहि) हनन कर। (मे) मेरे (सर्वान्) सब (दुर्हार्दः) दुष्ट-हार्दिक भावनाओं वालों को (जहि) हनन कर। (मे) मेरे (द्विषतः) द्वेषी=अमित्रों को (जहि) हनन कर।
टिप्पणी -
[दर्भ= १९.२८.१ मन्त्र में “दर्भ” का निर्वचन कर दिया है। तथा दृणाति विदारयतीति दर्भः (उणा० ३.१५१)=शत्रु के विदारण के कारण सेनापति को दर्भ कहा है। दुर्भाङ्कुर का अग्रभाग कण्टकमय होता है, जो कि पैर का विदारण कर देता है। इस प्रकार रूपक दृष्टि से भी सेनापति को “दर्भ” कहा जा सकता है। जैसे कि बहादुर को “शेर” तथा निर्बुद्धि को “गदहा” कह दिया जाता है। मन्त्र १ से ४ तक में साम-उपायों का वर्णन हुआ है, और मन्त्र ५ से ९ तक दण्ड-उपाय कहे गये हैं।]