अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 32/ मन्त्र 5
त्वम॑सि॒ सह॑मानो॒ऽहम॑स्मि॒ सह॑स्वान्। उ॒भौ सह॑स्वन्तौ भू॒त्वा स॒पत्ना॑न्सहिषीमहि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम्। अ॒सि॒। सह॑मानः। अ॒हम्। अ॒स्मि॒। सह॑स्वान्। उ॒भौ। सह॑स्वन्तौ। भू॒त्वा। स॒ऽपत्ना॑न्। स॒हि॒षी॒म॒हि॒ ॥३२.५॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमसि सहमानोऽहमस्मि सहस्वान्। उभौ सहस्वन्तौ भूत्वा सपत्नान्सहिषीमहि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। असि। सहमानः। अहम्। अस्मि। सहस्वान्। उभौ। सहस्वन्तौ। भूत्वा। सऽपत्नान्। सहिषीमहि ॥३२.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 32; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
हे दोषों के ओषधिरूप परमेश्वर! (त्वम्) आप (सहमानः) सहनशील होते हुए कामादि शत्रुओं का पराभव करनेवाले हैं, (अहम्) मैं भी (सहस्वान्) सहनशील होता हुआ कामादि शत्रुओं का पराभव करनेवाला (अस्मि) हूँ। (उभौ) हम दोनों (सहस्वन्तौ) सहनशील तथा पराभव करने वाले (भूत्वा) होकर (सपत्नान्) कामादि शत्रुओं का (सहिषीवहि) पराभव करें।
टिप्पणी -
[यदि व्यक्ति सहनशील होकर अर्थात् धैर्यपूर्वक कामादि शत्रुओं के पराभव के लिए यत्नवान् होता है, तो परमेश्वर भी इस प्रयत्न में उसका सहायक होता है। सहमानः=षह मर्षणे।]