अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जङ्गिड सूक्त
इन्द्र॑स्य॒ नाम॑ गृ॒ह्णन्त॒ ऋष॑यो जङ्गि॒डं द॑दुः। दे॒वा यं च॒क्रुर्भे॑ष॒जमग्रे॑ विष्कन्ध॒दूष॑णम् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य। नाम॑। गृ॒ह्णन्तः॑। ऋष॑यः। ज॒ङ्गि॒डम्। द॒दुः॒। दे॒वाः। यम्। च॒क्रुः। भे॒ष॒जम्। अग्रे॑। वि॒स्क॒न्ध॒ऽदूष॑णम् ॥३५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य नाम गृह्णन्त ऋषयो जङ्गिडं ददुः। देवा यं चक्रुर्भेषजमग्रे विष्कन्धदूषणम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य। नाम। गृह्णन्तः। ऋषयः। जङ्गिडम्। ददुः। देवाः। यम्। चक्रुः। भेषजम्। अग्रे। विस्कन्धऽदूषणम् ॥३५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 35; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इन्द्रस्य) मेघस्थ विद्युत् के (नाम) जल को अर्थात् वर्षा-जल को (गृह्णन्तः) ग्रहण करती हुई (ऋषयः) सूर्य-किरणें (जङ्गिडम्) जङ्गिड नामक औषध (ददुः) प्रदान करती हैं; (देवाः) और देवकोटि के चिकित्सक (यम्) जिस जङ्गिड को (विष्कन्धदूषणम्) सूखा-रोग मिटानेवाली (अग्रेभेषजम्) सर्वश्रेष्ठ औषधरूप में (चक्रु:) प्रयुक्त करते हैं।
टिप्पणी -
[इन्द्रस्य= “वायुर्वेन्द्रो वान्तरिक्षस्थान” (निरु० ७.२.५), अर्थात् वायु या इन्द्र अन्तरिक्षस्थ देवता हैं। तथा “महान्तमिन्द्र पर्वतं वि यद्वः सृजो वि धारा अव दानवं हन्” (ऋ० ५.३२.१), अर्थात् हे इन्द्र! तूने महामेघ को फैलाया है, और उदकदाता मेघ को ताड़ित कर तूने जल धाराओं का नीचे पृथिवी की ओर विसर्जन किया है। अतः इन्द्र=मेघस्थ विद्युत्। नाम= उदकम् (निघं० १।१२)। पर्वत=मेघ (निघं० १।१०)। मन्त्र द्वारा प्रतीत होता है कि जङ्गिड-औषध ग्रीष्मकाल की वर्षा-ऋतु में उत्पन्न होती है। ऋषयः=सूर्यरश्मयः (निरु० १२।४।३७)। ददुः, चक्रुः= “छन्दसि लुङ्लङ् लिटः” वर्तमाने।]