अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 35/ मन्त्र 4
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - जङ्गिड सूक्त
परि॑ मा दि॒वः परि॑ मा पृथि॒व्याः पर्य॒न्तरि॑क्षा॒त्परि॑ मा वी॒रुद्भ्यः॑। परि॑ मा भू॒तात्परि॑ मो॒त भव्या॑द्दि॒शोदि॑शो जङ्गि॒डः पा॑त्व॒स्मान् ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑। मा॒। दि॒वः। परि॑। मा॒। पृ॒थि॒व्याः। परि॑ । अ॒न्तरि॑क्षात्। परि॑। मा॒। वी॒रुत्ऽभ्यः॑। परि॑। मा॒। भू॒तात्। परि॑। मा॒। उ॒त। भव्या॑त्। दि॒शःऽदि॑शः। ज॒ङ्गि॒डः। पा॒तु॒। अ॒स्मान् ॥३५.४॥
स्वर रहित मन्त्र
परि मा दिवः परि मा पृथिव्याः पर्यन्तरिक्षात्परि मा वीरुद्भ्यः। परि मा भूतात्परि मोत भव्याद्दिशोदिशो जङ्गिडः पात्वस्मान् ॥
स्वर रहित पद पाठपरि। मा। दिवः। परि। मा। पृथिव्याः। परि । अन्तरिक्षात्। परि। मा। वीरुत्ऽभ्यः। परि। मा। भूतात्। परि। मा। उत। भव्यात्। दिशःऽदिशः। जङ्गिडः। पातु। अस्मान् ॥३५.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 35; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(जङ्गिडः) जङ्गिड औषध (मा) मेरी (परि पातु) पूर्ण रक्षा करे (दिवः) द्युलोक से; (मा) मेरी (परि) पूर्ण रक्षा करे (पृथिव्याः) पृथिवी से; (परि) पूर्ण रक्षा करे (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष से; (मा) मेरी (परि) पूर्ण रक्षा करे (वीरुद्भ्यः) वनस्पतियों से; (मा) मेरी (परि) पूर्ण रक्षा करे (भूतात्) भूत से; (उत) और (मा) मेरी (परि) पूर्ण रक्षा करे (भव्यात्) भविष्यत् से, (दिशोदिशः) प्रत्येक दिशा से (अस्मान्) हम सबकी (पातु) रक्षा करे।
टिप्पणी -
[दिवः= सूर्य के अधिक और कम ताप के कारण होनेवाले रोगों से। पृथिव्याः= पृथिवी से उत्पन्न रोगों से, अन्तरिक्षात्=आन्धी, अवर्षा, अतिवर्षा के कारण उत्पन्न रोगों से। वीरुद्भ्यः=औषधों के विकारों और अन्यथा प्रयोगों द्वारा उत्पन्न रोगों से। भूतात्=भूतकाल में हुए अपथ्यों और कुपथ्यों से उत्पन्न रोगों से। भव्यात्= भविष्यत् में असावधानी के कारण उत्पन्न होनेवाले रोगों से, मेरी और हम सबकी पूर्ण रक्षा जङ्गिड औषध कर सकती है।]