अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - जङ्गिड सूक्त
दु॒र्हार्दः॒ संघो॑रं॒ चक्षुः॑ पाप॒कृत्वा॑न॒माग॑मम्। तांस्त्वं स॑हस्रचक्षो प्रतीबो॒धेन॑ नाशय परि॒पाणो॑ऽसि जङ्गि॒डः ॥
स्वर सहित पद पाठदुः॒ऽहार्दः॑। सम्ऽघो॑रम्। चक्षुः॑। पा॒प॒ऽकृत्वा॑नम्। आ। अ॒ग॒म॒म्। तान्। त्वम्। स॒ह॒स्र॒च॒क्षो॒ इति॑ सहस्रऽचक्षो। प्र॒ति॒ऽबो॒धेन॑। ना॒श॒य॒। प॒रि॒ऽपानः॑। अ॒सि॒। ज॒ङ्गि॒डः ॥३५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
दुर्हार्दः संघोरं चक्षुः पापकृत्वानमागमम्। तांस्त्वं सहस्रचक्षो प्रतीबोधेन नाशय परिपाणोऽसि जङ्गिडः ॥
स्वर रहित पद पाठदुःऽहार्दः। सम्ऽघोरम्। चक्षुः। पापऽकृत्वानम्। आ। अगमम्। तान्। त्वम्। सहस्रचक्षो इति सहस्रऽचक्षो। प्रतिऽबोधेन। नाशय। परिऽपानः। असि। जङ्गिडः ॥३५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 35; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(दुर्हार्दः) दुःखप्रद हृदयरोगों को, (संघोरम्) अतिघोर (चक्षुः१) आंख या दृष्टि को, (आगमं पापकृत्वानम्) प्राप्त हुए पापी या भयङ्कररोगजनक क्रिमि अर्थात् कीटाणु को, (तान्) उन सबको (सहस्रचक्षो) हे हजारों रोगों का प्रत्याख्यान करनेवाले जङ्गिड! (प्रतीबोधेन) चिकित्सकों द्वारा रोगियों को रोगोपचार के बोध द्वारा (नाशय) विनष्ट कर। (परिपाणः) पूर्णतया रोगों से रक्षा करनेवाली (जङ्गिडः असि) तू जङ्गिड औषध है।
टिप्पणी -
[१. अर्थात् आंख के अतिघोर रोग को, जिससे दृष्टि का विनाश सम्भव हो। घोरम्=हन्तेः(उणा० ५.६४)।]