अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 39/ मन्त्र 4
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - कुष्ठः
छन्दः - षट्पदा जगती
सूक्तम् - कुष्ठनाशन सूक्त
उ॑त्त॒मो अ॒स्योष॑धीनामन॒ड्वाञ्जग॑तामिव व्या॒घ्रः श्वप॑दामिव। नद्या॒यं पुरु॑षो रिषत्। यस्मै॑ परि॒ब्रवी॑मि त्वा सा॒यंप्रा॑त॒रथो॑ दिवा ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त्ऽत॒मः। अ॒सि॒। ओष॑धीनाम्। अ॒न॒ड्वान्। जग॑ताम्ऽइव। व्या॒घ्रः। श्वप॑दाम्ऽइव। नद्य॑। अ॒यम्। पुरु॑षः। रि॒ष॒त्। यस्मै॑। प॒रि॒ऽब्रवी॑मि। त्वा॒। सा॒यम्ऽप्रा॑तः। अथो॒ इति॑। दिवा॑ ॥३९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्तमो अस्योषधीनामनड्वाञ्जगतामिव व्याघ्रः श्वपदामिव। नद्यायं पुरुषो रिषत्। यस्मै परिब्रवीमि त्वा सायंप्रातरथो दिवा ॥
स्वर रहित पद पाठउत्ऽतमः। असि। ओषधीनाम्। अनड्वान्। जगताम्ऽइव। व्याघ्रः। श्वपदाम्ऽइव। नद्य। अयम्। पुरुषः। रिषत्। यस्मै। परिऽब्रवीमि। त्वा। सायम्ऽप्रातः। अथो इति। दिवा ॥३९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 39; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
हे कुष्ठौषध! (ओषधीनाम्) ओषधियों में (उत्तमः) सर्वोत्तम ओषधि (असि) तू है, (इव) जैसे कि (अनड्वान्) शकटवाही बैल (जगताम्) अहिंस्र प्राणियों में सर्वोत्तम है; और (इव) जैसे कि (व्याघ्रः) व्याघ्र (श्वपदाम्) कुत्ते के पैरों के सदृश पैरोंवाले हिंस्रप्राणियों में सर्वोत्तम है। (नद्य) हे नदीप्रदेशोत्पन्न रोग! (अयं पुरुषः) कुष्ठसेवी यह पुरुष (रिषत्) तेरा विनाश करे, (यस्मै....) पूर्ववत्।