अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 39/ मन्त्र 6
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - कुष्ठः
छन्दः - चतुरवसानाष्टपदाष्टिः
सूक्तम् - कुष्ठनाशन सूक्त
अ॑श्व॒त्थो दे॑व॒सद॑नस्तृ॒तीय॑स्यामि॒तो दि॒वि। तत्रा॒मृत॑स्य॒ चक्ष॑णं॒ ततः॒ कुष्ठो॑ अजायत। स कुष्ठो॑ वि॒श्वभे॑षजः सा॒कं सोमे॑न तिष्ठति। त॒क्मानं॒ सर्वं॑ नाशय॒ सर्वा॑श्च यातुधा॒न्यः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒श्व॒त्थः। दे॒व॒ऽसद॑नः। तृ॒तीय॑स्याम्। इ॒तः। दि॒वि। तत्र॑। अ॒मृत॑स्य। चक्ष॑णम्। ततः॑। कुष्ठः॑। अ॒जा॒य॒त॒। सः। कुष्ठः॑। वि॒श्वऽभे॑षजः। सा॒कम्। सोमे॑न। ति॒ष्ठ॒ति॒। त॒क्मान॑म्। सर्व॑म्। ना॒श॒य॒। सर्वाः॑। च॒। या॒तु॒ऽधा॒न्यः᳡ ॥३९.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्वत्थो देवसदनस्तृतीयस्यामितो दिवि। तत्रामृतस्य चक्षणं ततः कुष्ठो अजायत। स कुष्ठो विश्वभेषजः साकं सोमेन तिष्ठति। तक्मानं सर्वं नाशय सर्वाश्च यातुधान्यः ॥
स्वर रहित पद पाठअश्वत्थः। देवऽसदनः। तृतीयस्याम्। इतः। दिवि। तत्र। अमृतस्य। चक्षणम्। ततः। कुष्ठः। अजायत। सः। कुष्ठः। विश्वऽभेषजः। साकम्। सोमेन। तिष्ठति। तक्मानम्। सर्वम्। नाशय। सर्वाः। च। यातुऽधान्यः ॥३९.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 39; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(इतः) इस पृथिवी से (तृतीयस्यां दिवि) तीसरे अर्थात् द्युलोक में, (देवसदनः) द्योतमान तारागणों में स्थित (अश्वत्थः) अश्वत्थ नक्षत्रमण्डल है। (तत्र) उस में जब सूर्य स्थित होता है, तब (अमृतस्य) जीवनप्रद उदक (चक्षणम्) दृष्टिगोचर होता है। (ततः) उस उदक से (कुष्ठः) सर्वोत्तम कूट या कुठ (अजायत) पैदा होता है। (स कुष्ठो....यातुधान्यः) पूर्ववत् (मन्त्र १९.३९.५)।
टिप्पणी -
[अभिप्राय यह है कि “अश्वत्थ नक्षत्रमण्डल” द्युलोक में है। इस नक्षत्रमण्डल में, या इस दिशा में सूर्य जब अपनी वार्षिक गति से आता है, तब वर्षा-जल द्वारा सर्वोत्तम कुष्ठ उत्पन्न होता है। अमृतम्=उदकम् (निघं० १.१२)।]