अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 47/ मन्त्र 5
द्वौ च॑ ते विंश॒तिश्च॑ ते॒ रात्र्येका॑दशाव॒माः। तेभि॑र्नो अ॒द्य पा॒युभि॒र्नु पा॑हि दुहितर्दिवः ॥
स्वर सहित पद पाठद्वौ। च॒। ते॒। विं॒श॒तिः। च॒। ते॒। रात्रि॑। एका॑दश। अ॒व॒माः। तेभिः॑। नः॒। अ॒द्य। पा॒युऽभिः॑। नु। पा॒हि॒। दु॒हि॒तः॒। दि॒वः॒ ॥४७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वौ च ते विंशतिश्च ते रात्र्येकादशावमाः। तेभिर्नो अद्य पायुभिर्नु पाहि दुहितर्दिवः ॥
स्वर रहित पद पाठद्वौ। च। ते। विंशतिः। च। ते। रात्रि। एकादश। अवमाः। तेभिः। नः। अद्य। पायुऽभिः। नु। पाहि। दुहितः। दिवः ॥४७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 47; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(द्वौ च ते विंशतिः च) और जो तेरे २२ द्रष्टा हैं, (रात्रि) हे रात्रि! (ते) जो तेरे (एकादश अवमाः) कम से कम ११ द्रष्टा हैं, (तेभिः) उन (पायुभिः) रक्षकों द्वारा (अद्य) आज अर्थात् प्रतिदिन (नः) हमारी (पाहि) तू रक्षा कर, (दिवः दुहितः) हे द्युलोक की पुत्रि! (नु) अवश्य (पाहि) रक्षा कर।
टिप्पणी -
[रात्री का सम्बोधन कवितारूप में है। रात्री में द्युलोक में चमकते तारागण रात्री की सम्पत्ति हैं। इसलिए रात्री को “रेवती” कहा है। इनका रात्री के साथ अटूट सम्बन्ध है। रात्री में शयन द्वारा प्राणी सुख पाते हैं, इसलिए रात्री “सुम्नयी है” सुम्नम सुखनाम (निघं० ३।६)+क्वच् (परेच्छायाम्)। रात्री में शयन से प्राणियों में पुनः बलसंचार हो जाता है इसलिए रात्री “वाजिनी” है। वाजः बलनाम (निघं० २।९)। रात्री के द्युलोक के साथ रात्री का अटूट सम्बन्ध है, इसलिए रात्री को “दिवः दुहिता” कहा है। ९९ आदि संख्याओं द्वारा द्युलोक के विविध नक्षत्रमण्डलों का निर्देश प्रतीत होता है, जो कि निज तारारूपी नेत्रों द्वारा प्रसुप्त नर-नारियों की मानो निगरानी कर रहे होते हैं। अथवा— एकादश, अवमाः—रात्री में सोने पर प्राणमयकोश के १० प्राण सक्रिय रहते हैं, और जीवात्मा स्वसत्ता द्वारा प्राणमयकोश में अनुस्यूत रहता है। १० प्राण हैं—प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर (कृकल), देवदत्त, धनञ्जय। प्राण के कर्म हैं श्वासोच्छ्वास आदि, अपान के कर्म हैं मलमूत्रत्याग आदि, उदरस्थ समान के कर्म हैं परिपक्व अन्नरस को अङ्ग-प्रत्यङ्ग में पहुँचाना, कण्ठस्थ उदान द्वारा शरीर उठा रहता और मृत्युकाल में सूक्ष्मशरीर, स्थूलशरीर से बाहर निकलता है, व्यान सर्वशरीर व्यापी है और रुधिर का संचार करता है, नाग डकार और छींक आदि का कारण है, कूर्म द्वारा निमीलन और संकोचन आदि होते हैं, कृकर द्वारा क्षुधा तथा तृष्णा, देवदत्त द्वारा निद्रा तथा धनञ्जय शरीर का पोषण होता है। ये १० प्राण अन्नमयकोश अर्थात् स्थूलशरीर में संचरित होकर, निज १० शक्तियाँ प्रदान करते हैं, और जीवात्मा स्थूलशरीर में संचरित होकर, निज १० शक्तियां प्रदान करते हैं, और जीवात्मा स्थूलशरीर में भी अनुस्यूत रहता है। स्थूलशरीर में १० प्राणों की १० शक्तियां और जीवात्माशक्ति— “एकादश अवमाः” हैं। अथर्ववेद के अनुसार मनुष्य में ९ कोश हैं। यथा— “तस्येमे नव कोशा विष्टम्भा नवधा हिताः” (१३.४.१०)। सत्कार्यवाद के अनुसार मूल उपादान कारण से जो कार्य, क्रमशः उत्तरोत्तर अभिव्यक्त होते रहते हैं उन की सत्ता अभिव्यक्तावस्था से पूर्व भी अनभिव्यक्तरूप में निज मूलकारण में प्रथमतः विद्यमान रहती है। उपरिलिखित नवकोशों में जीवात्मसत्ता तो सर्वत्र अनुस्यूत है। इस प्रकार अन्नमयकोशरूपी स्थूल शरीर की ११ शक्तियाँ प्राणमय कोश में भी लीन रहती हैं। प्राणमयकोश की निज ११ शक्तियाँ और प्राणमयकोश में लीन अन्नमयकोश की ११ शक्तियाँ मिलाकर २२ शक्तियों का पुञ्ज प्राणमयकोश है। इस प्रकार ९ कोशों में से मूलकोश अर्थात् “बुद्धिरूप सत्त्वमयकोश” में ९९ शक्तियाँ (११×९) उसके कार्यरूप द्वितीयकोश में ८८ शक्तियाँ, तीसरे कोश में ७७ शक्तियाँ, चौथे कोश में ६६ शक्तियाँ, पांचवें कोश में ५५ शक्तियाँ, चौथे कोश में ४४ शक्तियाँ, तीसरे कोश में ३३ शक्तियाँ, दूसरे कोश में २२ शक्तियाँ, और अन्तिम कोश अर्थात् अन्नमयकोश शरीर में “एकादश अवमाः” कम से कम ११ शक्तियाँ निहित हैं।इस प्रकार ९ कोशों की अपनी-अपनी जागरित तथा प्रसुप्त शक्तियों द्वारा, रात्री में प्रसुप्त प्राणिवर्ग की सुरक्षा होती रहती है। यहाँ अन्नमय कोश को प्रथम कोश मानकर, इससे पूर्व के कारणरूप कोशों समेत, संख्या ९ जाननी चाहिए। सत्कार्यवाद के सम्बन्ध में छान्दोग्योपनिषद् में एक सन्दर्भ निम्नलिखितरूप में आर्यभाषा में दिया जाता है। यथा— “उद्दालक आरुणि ने श्वेतकेतु को कहा कि न्यग्रोधफल अर्थात् गूलर का फल ला?। भगवन्! यह ले आया। इसे तोड़? भगवान्! तोड़ दिया। इसमे तू क्या देखता है? । भगवन् ! अणुरूप ये दानें देखता हूँ। इन दानों में से एक दाना तोड़?। भगवन्! तोड़ दिया। इसमें तू क्या देखता है?। भगवन्! कुछ नहीं देखता देखता॥ १॥ उसे उद्दालक आरुणि बोला हे प्रिय! जिस सूक्ष्म तत्त्व को तू नहीं देख रहा इसी सूक्ष्म तत्त्व से इस प्रकार का यह महान्यग्रोध उत्पन्न हुआ स्थित है॥ २॥ (छान्दो० उप० अ० ६, खं १२, सन्दर्भ १,२)। इसी प्रकार ९ कोशों में से ८ कोश, मूलभूत ९वें कोश अर्थात् सत्त्वमय बुद्धि कोश में लीन रहते, और इसी मूल कोश से क्रमशः आविर्भूत होते हैं।]