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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 47

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 47/ मन्त्र 8
    सूक्त - गोपथः देवता - रात्रिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रात्रि सूक्त

    अध॑ रात्रि तृ॒ष्टधू॑ममशी॒र्षाण॒महिं॑ कृणु। हनू॒ वृक॑स्य ज॒म्भया॑स्ते॒नं द्रु॑प॒दे ज॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑। रा॒त्रि॒। तृ॒ष्टऽधू॑मम्। अ॒शी॒र्षाण॑म्। अहि॑म्। कृ॒णु॒। हनू॒ इति॑। वृक॑स्य। ज॒म्भयाः॑। तेन॑। तम्। द्रु॒ऽप॒दे। ज॒हि॒ ॥४७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध रात्रि तृष्टधूममशीर्षाणमहिं कृणु। हनू वृकस्य जम्भयास्तेनं द्रुपदे जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध। रात्रि। तृष्टऽधूमम्। अशीर्षाणम्। अहिम्। कृणु। हनू इति। वृकस्य। जम्भयाः। तेन। तम्। द्रुऽपदे। जहि ॥४७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 47; मन्त्र » 8

    भाषार्थ -
    (अध) तथा (रात्रि) हे रात्रि! तू (तृष्टधूमम्) पिपासाजनक फुंकारोंवाले (अहिम्) सांप को (अशीर्षाणम्) सिर-रहित (कृणु) कर दे। (वृकस्य) भेड़िये के (हनू) दो जबड़ों को (जम्भयाः) ढीले कर दे, तोड़ दे। (तेन) उससे (तम्) उस को (जहि) मार डाल, जैसे कि किसी को (द्रुपदे) काठ अर्थात् पैरों की बेड़ी डाल कर मार दिया जाता है।

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