अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 55/ मन्त्र 6
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्बृहती
सूक्तम् - रायस्पोष प्राप्ति सूक्त
त्वमि॑न्द्रा पुरुहूत॒ विश्व॒मायु॒र्व्यश्नवत्। अह॑रहर्ब॒लिमित्ते॒ हर॒न्तोऽश्वा॑येव॒ तिष्ठ॑ते घा॒सम॑ग्ने ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम्। इ॒न्द्र॒। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। विश्व॑म्। आयुः॑। वि। अ॒श्न॒व॒त्। अहः॑ऽअहः। ब॒लिम्। इत्। ते॒। हर॑न्तः। अश्वा॑यऽइव। तिष्ठ॑ते। घा॒सम्। अ॒ग्ने॒ ॥५५.६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्रा पुरुहूत विश्वमायुर्व्यश्नवत्। अहरहर्बलिमित्ते हरन्तोऽश्वायेव तिष्ठते घासमग्ने ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। इन्द्र। पुरुऽहूत। विश्वम्। आयुः। वि। अश्नवत्। अहःऽअहः। बलिम्। इत्। ते। हरन्तः। अश्वायऽइव। तिष्ठते। घासम्। अग्ने ॥५५.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 55; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
(पुरुहूत) बहुधा निमन्त्रित (इन्द्र) राजन्! (त्वम्) आप (विश्वमायुः) सम्पूर्ण आयु को (व्यश्नवत्=व्यश्नवः=अश्नुहि) प्राप्त करें, अर्थात् १०० वर्षों तक जीवित रहकर राज्य करें। (इव) जैसे (तिष्ठते अश्वाय) स्थिर अश्व के लिये (अहरहः) प्रतिदिन अर्थात् नियमपूर्वक (घासम्) घास-चारा (हरन्तः) लाते हैं, वैसे (अग्ने) हे अग्रणी राजन्! (तिष्ठते) राज्यगद्दी पर स्थिररूप में स्थिर (ते) आप के लिये (इत्) निश्चय ही (बलिम्) राज्यकर (हरन्तः) लानेवाले हम हों।
टिप्पणी -
[विश्वम् आयुः; तिष्ठते= वेदोक्त आज्ञानुसार निर्वाचित योग्य राजा आयुभर राजा रह सकता है। यथा— प॒थ्या रे॒त्वती॑र्बहु॒धा विरू॑पाः॒ सर्वाः॑ स॒ङ्गत्य॒ वरी॑यस्ते अक्रन्। तास्त्वा॒ सर्वाः॑ संविदा॒ना ह्व॑यन्तु दश॒मीमु॒ग्रः सु॒मना॑ वशे॒ह॥ अथर्व० ३.४.७॥ अर्थात् सन्मार्गगामी, ऐश्वर्यों से सम्पन्न, बहुधा विविधरूपोंवाली सब प्रजाओं ने मिलकर, तेरा वरण अर्थात् निर्वाचन किया है। वे सब एकमत उग्र होकर आपका आह्वान करें। आप प्रसन्नचित्त होकर, और शासन में उग्र होकर, इस राष्ट्र में दसवीं अवस्था अर्थात् ९० वर्षों से ऊपर की अवस्था तक, प्रजा को अपने वश में रखें। बलिम्— राज्यकर, अन्न के रूप में। यथा— “प्रजानामेव भूत्यर्थ स ताभ्यो बलिमग्रहीत्” (रघुवंश १.१८); तथा (मनुस्मृति ७.८०; ८.३०७)।]