अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 55/ मन्त्र 2
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - आस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - रायस्पोष प्राप्ति सूक्त
या ते॒ वसो॒र्वात॒ इषुः॒ सा त॑ ए॒षा तया॑ नो मृड। रा॒यस्पोषे॑ण॒ समि॒षा मद॑न्तो॒ मा ते॑ अग्ने॒ प्रति॑वेशा रिषाम ॥
स्वर सहित पद पाठया। ते॒। वसोः॑। वातः॑। इषुः॑। सा। ते॒। ए॒षा। तया॑। नः॒। मृ॒ड॒। रा॒यः। पोषे॑ण। सम्। इ॒षा। मद॑न्तः। मा। ते॒। अ॒ग्ने॒। प्रति॑ऽवेशाः। रि॒षा॒म॒ ॥५५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
या ते वसोर्वात इषुः सा त एषा तया नो मृड। रायस्पोषेण समिषा मदन्तो मा ते अग्ने प्रतिवेशा रिषाम ॥
स्वर रहित पद पाठया। ते। वसोः। वातः। इषुः। सा। ते। एषा। तया। नः। मृड। रायः। पोषेण। सम्। इषा। मदन्तः। मा। ते। अग्ने। प्रतिऽवेशाः। रिषाम ॥५५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 55; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(अग्ने) हे अग्रणी राजन्! (वसोः) प्रजाजनों को बसानेवाले (ते) आपकी (या) जो (वातः इषुः) वातरूपी इषु है, (एषा सा) यह वह (ते) आपके अधिकार में है, (तया) उसके प्रयोग द्वारा (नः) हमें (मृड) सुखी कीजिए। (रायस्पोषेण....रिषाम) पूर्ववत्।
टिप्पणी -
[वातः इषुः=वायव्यास्त्र। यथा—“इन्द्र.....वातस्य ध्राज्या तान् विषूचो विनाशय” (अथर्व० ३.१.५) अर्थात् हे राजन्! वायु के वेग द्वारा नाना दिशाओं में व्याप्त या भागनेवाले उन शत्रु सैनिकों का विनाश कर। “अप्वा” भी एक प्रकार का वायव्यास्त्र है। यथा—“अमीषां चित्तानि प्रतिमोहयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि। अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैर्ग्राह्यामित्रांस्तमसा विध्य शत्रून्”॥ (अथर्व० ३.२.५)। तथा तामसास्त्र, यथा— “असौ या सेना मरुतः परेषामस्मानैत्यभ्योजसा स्पर्धमाना। तां विध्यत तमसापव्रतेन यथैषामन्यो अन्यं न जानात्”॥ (अथर्व० ३.२.६)— हे अप्वास्त्र! दूर जा, इन शत्रुओं के चित्तों को व्यामोहित, अर्थात् किंकर्त्तव्यविमूढ़ करता हुआ इनके अङ्गों को जकड़ दे। शत्रुओं की ओर जा, शोकों द्वारा इनके हृदयों को दग्ध कर। हे अङ्गों को जकड़नेवाले! तू अमित्र= शत्रुओं को अन्धकार द्वारा वींध (३.२.५)। तामसास्त्र यथा— “हे वायु के समान वेग वाले या मारने में कुशल सैनिको! स्पर्धा करती हुई वह जो पराई सेना वेग से हमारी ओर आती है, उसे अकर्मण्य कर देने वाले अन्धकार द्वारा वींध डालो। ताकि इनमें से परस्पर एक-दूसरे को न जान पहिचान पाए”। अप्वा=अप+वा (गतौ)। तमसा=अप्वा अस्त्र चित्तों को ज्ञानशून्य करता, अङ्गों को जकड़ देता, और शत्रुदल में अन्धकार फैला देता है। ऐसे शस्त्रास्त्रों के प्रयोग करने या न करने का अधिकार राजा को होना चाहिए।]