अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 56/ मन्त्र 5
सूक्त - यमः
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त
यस्य॑ क्रू॒रमभ॑जन्त दु॒ष्कृतो॒ऽस्वप्ने॑न सु॒कृतः॒ पुण्य॒मायुः॑। स्वर्मदसि पर॒मेण॑ ब॒न्धुना॑ त॒प्यमा॑नस्य॒ मन॒सोऽधि॑ जज्ञिषे ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑। क्रू॒रम्। अभ॑जन्त। दुः॒ऽकृतः॑। अ॒स्वप्ने॑न। सु॒ऽकृतः॑। पुण्य॑म्। आयुः॑। स्वः᳡। म॒द॒सि॒। प॒र॒मेण॑। ब॒न्धुना॑। त॒प्यमा॑नस्य। मन॑सः। अधि॑। ज॒ज्ञि॒षे॒ ॥५६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य क्रूरमभजन्त दुष्कृतोऽस्वप्नेन सुकृतः पुण्यमायुः। स्वर्मदसि परमेण बन्धुना तप्यमानस्य मनसोऽधि जज्ञिषे ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य। क्रूरम्। अभजन्त। दुःऽकृतः। अस्वप्नेन। सुऽकृतः। पुण्यम्। आयुः। स्वः। मदसि। परमेण। बन्धुना। तप्यमानस्य। मनसः। अधि। जज्ञिषे ॥५६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 56; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(दुष्कृतः) दुष्कर्मी (यस्य) जिस दुःस्वप्न की (क्रूरम् अभजन्त) क्रूरता के भागी होते हैं; और हे स्वप्न! जब तू (स्वः) सुखस्वरूप (परमेण बन्धुना) परमबन्धु परमेश्वर के साथ बन्धुत्व को प्राप्त कर (मदसि) संतृप्त हो जाता है, तब (अस्वप्नेन) स्वप्नाभाव के कारण (सुकृतः) सुकर्मी जन (पुण्यम् आयुः अभजन्त) पुण्य अर्थात् पवित्र जीवन के भागी हो जाते हैं। और हे स्वप्न! तू (तप्यमानस्य) दुष्कर्मों के कारण सन्तप्त हो रहे मनुष्य के (मनसः अधि) मन से (जज्ञिषे) उत्पन्न होता रहता है, या हुआ है।
टिप्पणी -
[क्रूरम्= रात्रि को स्वप्नावस्था में दुर्घटनाओं के स्वप्न लेते हुए डरना, रोना-चिल्लाना, घबरा जाना, और चिन्तित होना—यह दुःस्वप्नों की क्रूरता है। अस्वप्नेन=योगीजन निद्रावृत्ति और स्वप्नवृत्तियों तथा विचारों का निरोध कर परमेश्वर के ध्यान में जब लीन हो जाते हैं, तब उन की स्वप्नशक्तियां भी परमेश्वर में लीन होकर मानो संतृप्त होकर अभावरूप हो जाती हैं। तब योगी का जीवन पवित्र हो जाता है, परन्तु दुष्कर्मी लोग सांसारिक भोगों से संतप्त हुए स्वप्नों के शिकार बने रहते हैं। स्वः= अव्यय होने से तृतीयान्तरूप भी सम्भव है। मदसि=मद तृप्तियोगे।]