अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 56/ मन्त्र 4
सूक्त - यमः
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त
नैतां वि॑दुः पि॒तरो॒ नोत दे॒वा येषां॒ जल्पि॒श्चर॑त्यन्त॒रेदम्। त्रि॒ते स्वप्न॑मदधुरा॒प्त्ये नर॑ आदि॒त्यासो॒ वरु॑णे॒नानु॑शिष्टाः ॥
स्वर सहित पद पाठन। ए॒ताम्। वि॒दुः॒। पि॒तरः॑। न। उ॒त। दे॒वाः। येषा॑म्। जल्पिः॑। चर॑ति। अ॒न्त॒रा। इ॒दम् । त्रि॒ते। स्वप्न॑म्। अ॒द॒धुः॒। आ॒प्त्ये। नर॑। आदि॑त्यासः। वरु॑णेन। अनु॑ऽशिष्टाः ॥५६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
नैतां विदुः पितरो नोत देवा येषां जल्पिश्चरत्यन्तरेदम्। त्रिते स्वप्नमदधुराप्त्ये नर आदित्यासो वरुणेनानुशिष्टाः ॥
स्वर रहित पद पाठन। एताम्। विदुः। पितरः। न। उत। देवाः। येषाम्। जल्पिः। चरति। अन्तरा। इदम् । त्रिते। स्वप्नम्। अदधुः। आप्त्ये। नर। आदित्यासः। वरुणेन। अनुऽशिष्टाः ॥५६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 56; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(एताम्) स्वप्न की इस सात्त्विक अवस्था को (न) न तो (पितरः) गृहस्थ में आसक्त (विदुः) जान पाते हैं, (उत न) और न (देवाः) अपरविद्या के विद्वान्, (येषाम्) जिन विद्वानों के कि (इदम् अन्तरा) इस चित्त के भीतर (जल्पिः) व्यर्थ का वाद-विवाद (चरति) चलता रहता है। (वरुणेन) श्रेष्ठ आचार्य द्वारा (अनुशिष्टाः) शिक्षित (आदित्यासः नरः) आदित्य ब्रह्मचारी पुरुष (स्वप्नम्) निज स्वप्नों को (त्रिते) अत्यन्त मेधावी, या तीन लोकों का विस्तार करनेवाले, या तीन लोकों में व्याप्त (आप्त्ये) आप्तों मे परम आप्त परमेश्वर में (अदधुः) स्थापित कर देते हैं।
टिप्पणी -
[वाद जल्प वितण्डा में जल्प और वितण्डा अनुपादेय हैं, और वाद उपादेय है। वरुणेन= “आचार्यो मृत्युर्वरुणः सोम ओषयः पयः” (अथर्व० ११/५/१४) में आचार्य को वरुण भी कहा है। तथा “अमा घृतं कृणुते केवलमाचार्यो भूत्वा वरुणो यद् यदैच्छत् प्रजापतौ” (अथर्व० ११/५/१५), इस मन्त्र में भी वरुण को आचार्य कहा है। त्रिते= “त्रितः तीर्णतमो मेधया” (निरु० ४/१/६)। तथा त्रि+तन् (विस्तारे)। स्वप्नमदधुः=आदित्य ब्रह्मचारियों जैसे पवित्र लोगों के स्वप्नों में परमेश्वर पर ही ध्यान होता है, न कि सांसारिक पदार्थों पर। यह है परमेश्वर में स्वप्नों का स्थापन।]