अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 56/ मन्त्र 2
सूक्त - यमः
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त
ब॒न्धस्त्वाग्रे॑ वि॒श्वच॑या अपश्यत्पु॒रा रात्र्या॒ जनि॑तो॒रेके॒ अह्नि॑। ततः॑ स्वप्ने॒दमध्या ब॑भूविथ भि॒षग्भ्यो॑ रू॒पम॑प॒गूह॑मानः ॥
स्वर सहित पद पाठब॒न्धः। त्वा॒। अग्रे॑। वि॒श्वऽच॑याः। अ॒प॒श्य॒त्। पु॒रा। रात्र्याः॑। जनि॑तोः। एके॑। अह्नि॑। ततः॑। स्व॒प्न॒। इ॒दम्। अधि॑। आ। ब॒भू॒वि॒थ॒। भि॒षक्ऽभ्यः॑। रू॒पम्। अ॒प॒ऽगूह॑मानः ॥५६.२॥
स्वर रहित मन्त्र
बन्धस्त्वाग्रे विश्वचया अपश्यत्पुरा रात्र्या जनितोरेके अह्नि। ततः स्वप्नेदमध्या बभूविथ भिषग्भ्यो रूपमपगूहमानः ॥
स्वर रहित पद पाठबन्धः। त्वा। अग्रे। विश्वऽचयाः। अपश्यत्। पुरा। रात्र्याः। जनितोः। एके। अह्नि। ततः। स्वप्न। इदम्। अधि। आ। बभूविथ। भिषक्ऽभ्यः। रूपम्। अपऽगूहमानः ॥५६.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 56; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(रात्र्याः) मृत्युरूपी रात्री के (जनितोः पुरा) प्रकट होने से पूर्व, अर्थात् जीवनकाल में (बन्धः) बद्ध जीवात्मा ने (अग्रे) पहिले (विश्वचयाः) सब प्रकार के संस्कारों का चयन किया था, तब (एके अह्नि) एक दिन अर्थात् शिशु की उत्पत्ति के दिन हे स्वप्न! (त्वा) तुझे बद्ध जीवात्मा ने (अपश्यत्) देखा। (स्वप्न) हे स्वप्न! (ततः) तब से अर्थात् शिशु की उत्पत्ति के काल से (इदम्) इस शरीर में (आ बभूविथ) तू आ प्रकट हुआ है। (भिषग्भ्यः) चिकित्सकों से भी तू (रूपम्) निज स्वरूप को (अप गूहमानः) छिपाये हुए है, अर्थात् चिकित्सक भी तेरे स्वरूप को नहीं जानते। तथा— (रात्र्याः) आगामी प्रलय-रात्री की (जनितोः) उत्पत्ति से (पुरा) पहिले ही (एके अह्नि) एक दिन अर्थात् सृष्टित्युत्पत्ति के दिन (अग्रे) प्रारम्भ में (विश्वचयाः) विश्व का चयन अर्थात् निर्माण करनेवाले (बन्धः) और उत्पन्न होनेवाले पदार्थों में परस्पर सम्बन्ध पैदा करनेवाले परमेश्वर ने, हे स्वप्न! (त्वा) तुझे (अपश्यत्) देखा था। (ततः) तत्पश्चात् (स्वप्न) हे स्वप्न! (इदम्) इस जगत् में (अधि) स्वाधिकार रूप में (आ बभूविथ) तू आ प्रकट हुआ है। (भिषग्भ्यः—गूहमानः) पूर्ववत्।
टिप्पणी -
[अभिप्राय यह कि जीवितकाल में बद्ध जीवात्मा स्वप्न के कारणीभूत संस्कारों का चयन करता रहता है। मृत्यु के पश्चात् जिस दिन शिशुरूप में जन्म लेता है, उसी दिन से जीवात्मा स्वप्नरूप में उन संस्कारों को देखने लगता है। उत्पन्न शिशु में भी मुस्कराना तथा रोना आदि कर्म देखे जाते हैं, जोकि पूर्वजन्म में संचित-संस्कारों का उद्बोधन अर्थात् स्वप्नरूप होते हैं। भिषग्भ्यः=अर्थात् चिकित्सक तो शरीर और मन के विशेषज्ञ होते हैं, परन्तु ऐसे विज्ञ भी स्वप्नों के रहस्यों को वास्तविकरूप में नहीं जानते।] तथा— [सृष्ट्युत्पादन से पूर्व परमेश्वर में सृष्ट्युत्पादन की “कामना” तथा तदर्थ “ईक्षण” होते हैं। यह “कामना” और “ईक्षण” स्वप्नरूप है। क्योंकि कामना और ईक्षण काल में जगत् की सत्ता नहीं होती। जगत् उस अवस्था में कल्पनारूप होता है, जैसे कि हमारे स्वप्नों में स्वाप्निक पदार्थों की सत्ता नहीं होती, और उन की सत्ता काल्पनिक ही होती है। सृष्ट्युत्पत्ति के समय ही सृष्टि के प्रलय का समय भी निश्चित हो जाता है। परमेश्वर के स्वप्न के अनन्तर जब सृष्टि हुई, और हम पैदा हुए, तदनन्तर ही पूर्व तथा नई नई वासनाओं के कारण हम में स्वप्नोदगम होते हैं। देखो—मन्त्र (अथर्व० १९.५२.१)।]