अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - त्रिपदापरोष्णिक्
सूक्तम् - श्रेयः प्राप्ति सूक्त
प्रति॒ तम॒भि च॑र॒ यो ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः। आ॑प्नु॒हि श्रेयां॑स॒मति॑ स॒मं क्रा॑म ॥
स्वर सहित पद पाठप्रति॑ । तम् । अ॒भि । च॒र॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: । आ॒प्नु॒हि । श्रेयां॑सम् । अति॑ । स॒मम् । क्रा॒म॒ ॥११.३॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रति तमभि चर यो ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम ॥
स्वर रहित पद पाठप्रति । तम् । अभि । चर । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: । आप्नुहि । श्रेयांसम् । अति । समम् । क्राम ॥११.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
हे जीवात्मन् ! (तम् ) उस दुरित को (अभिचर) विनष्ट कर (यः) जो कि (अस्मान् द्वेष्टि) हमारे साथ द्वेष करता है, ( यम् वयम् ) और जिसके साथ हम (द्विष्मः) द्वेष करते हैं। (श्रेयांसम् आप्नुहि ) एतदर्थ श्रेष्ठ गुरु को प्राप्त हो, उसकी सेवा कर, (समम् अतिकाम) और स्वसमान व्यक्ति का अतिक्रमण कर, उससे भी आगे बढ़।
टिप्पणी -
[जो दुरित और दुर्विचार हैं, वे जीवन में शत्रुरूप हैं। यदि उन्हें हम अपनाते रहें तो उनका विनाश अर्थात् निवारण नहीं हो सकता। उनका निवारण तभी हो सकता है यदि हम भी उनसे द्वेष करें, प्रीति न करें और एतदर्थ श्रेष्ठ गुरुओं का सत्संग करते रहें, और उनकी सेवा शुश्रुषा करते रहें।]