अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 4
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्यादूषणम्
छन्दः - पिपीलिकमध्यानिचृद्गायत्री
सूक्तम् - श्रेयः प्राप्ति सूक्त
सू॒रिर॑सि वर्चो॒धा अ॑सि तनू॒पानो॑ ऽसि। आ॑प्नु॒हि श्रेयां॑स॒मति॑ स॒मं क्रा॑म ॥
स्वर सहित पद पाठसू॒रि: । अ॒सि॒ । व॒र्च॒:ऽधा: । अ॒सि॒ । त॒नू॒ऽपान॑: । अ॒सि॒ । आ॒प्नु॒हि । श्रेयां॑सम् । अति॑ । स॒मम् । क्रा॒म॒ ॥११.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सूरिरसि वर्चोधा असि तनूपानो ऽसि। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम ॥
स्वर रहित पद पाठसूरि: । असि । वर्च:ऽधा: । असि । तनूऽपान: । असि । आप्नुहि । श्रेयांसम् । अति । समम् । क्राम ॥११.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
हे जीवात्मन् ! (सूरिः असि) तू अभिज्ञ है, (वर्चोधाः असि) तेजधारी है, (तनूपानः असि) शरीर का रक्षक है। (श्रेयांसम् आप्नुहि, समम् अतिक्राम) अर्थ, पूर्ववत्।
टिप्पणी -
[सायण ने सूरि का अर्थ "अभिज्ञ" किया है। अभिज्ञ का अर्थ होता है ज्ञानवान्, ज्ञानी। यह अर्थ तिलकवृक्ष की मणि अर्थात् काष्ठखण्ड में उपपन्न नहीं हो सकता, जीवात्मा में ही उपपन्न हो सकता है। ज्ञानधर्म जीवात्मा का है।]