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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 20/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - वायुः छन्दः - एकावसानानिचृद्विषमात्रिपाद्गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    वायो॒ यत्ते॒ तप॒स्तेन॒ तं प्रति॑ तप॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वायो॒ इति॑ । यत् । ते॒ । तप॑: । तेन॑ । तम् । प्रति॑ । त॒प॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: ॥२०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वायो यत्ते तपस्तेन तं प्रति तप यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वायो इति । यत् । ते । तप: । तेन । तम् । प्रति । तप । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: ॥२०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 20; मन्त्र » 1

    भाषार्थ -
    वायु का मुख्य अर्थ है परमेश्वर । जैसे अग्नि का शासक होने से अग्नि है परमेश्वर, वैसे वायु का शासक होने से वायु है परमेश्वर। जैसे देवदत्त आदि नाम न केवल शरीर के हैं और न केवल जीवात्मा के, अपितु शरीर विशिष्ट जीवात्मा के हैं, वैसे ही वायु, आदि नाम वायुविशिष्ट परमात्मा के हैं। वायु आदि परमेश्वर के शरीरसदृश हैं। उदाहरणार्थ "यो वायौ तिष्ठन् वायोरन्तरो यं वायुनं वेद यस्य वायुः शरीरं यो वायुमन्तरो यमयति, एष त आत्मान्तर्याम्यमृतः" (बृहदा० उपनिषद् ब्राह्मण ७, खण्ड ७)। ब्राह्मण ७, खण्ड १ से २३ द्रष्टव्य हैं।)

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