अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 20/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - वायुः
छन्दः - भुरिग्विषमात्रिपाद्गायत्री
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
वायो॒ यत्ते॒ तेज॒स्तेन॒ तम॑ते॒जसं॑ कृणु॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥
स्वर सहित पद पाठवायो॒ इति॑ । यत् । ते॒ । तेज॑: । तेन॑ । तम् । अ॒ते॒जस॑म् । कृ॒णु॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: ॥२०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
वायो यत्ते तेजस्तेन तमतेजसं कृणु यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥
स्वर रहित पद पाठवायो इति । यत् । ते । तेज: । तेन । तम् । अतेजसम् । कृणु । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: ॥२०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 20; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
अर्थ और भाव पूर्ववत् । तेजः है परमेश्वर का तेजःस्वरूप, प्रकाशमय स्वरूप। वह पापियों के तेज: का अपहरण कर लेता है, और धर्मात्माओं के तेज और यश का संवर्धन करता है । तथा वायु के कारण अग्नि का प्रज्वलन होता है। वायु१ कारण है और अग्नि कार्य है। कार्य के गुणों का आरोप कारण में हुआ है, कारणे कार्योपचारः। तथा प्रचण्ड वायु वृक्षों आदि का अपहरण करती है। अतः इसमें "हर:" गुण स्वतः विद्यमान है। ग्रीष्म ऋतु में यह प्रतप्त हो जाती है। अतः इसमें "तप:" गुण भी विद्यमान है। अर्चिः और शोचि गुण की सत्ता अग्नि के कारण होने से है।] [१. वायु को "अग्निसखः" भी इसलिये कहते हैं।]