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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 101/ मन्त्र 2
अ॒ग्निम॑ग्निं॒ हवी॑मभिः॒ सदा॑ हवन्त वि॒श्पति॑म्। ह॑व्य॒वाहं॑ पुरुप्रि॒यम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम्ऽअ॑ग्निम् । हवी॑ऽभि: । सदा॑ । ह॒व॒न्त॒ । वि॒श्पति॑म् ॥ ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । पु॒रु॒ऽप्रि॒यम् ॥१०१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निमग्निं हवीमभिः सदा हवन्त विश्पतिम्। हव्यवाहं पुरुप्रियम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम्ऽअग्निम् । हवीऽभि: । सदा । हवन्त । विश्पतिम् ॥ हव्यऽवाहम् । पुरुऽप्रियम् ॥१०१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 101; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(विश्पतिम्) सब प्रजाओं के स्वामी तथा रक्षक, (हव्यवाहम्) भक्तिरसरूपी हवि के स्वीकर्त्ता, या खान-पान के योग्य पदार्थ प्राप्त करानेवाले, (पुरुप्रियम्) सर्वप्रिय (अग्निम्) आगे ले जानेवाले, तथा (अग्निम्) सर्वाग्रणी का, (हवीमभिः) आह्वान-मन्त्रों द्वारा, उपासक (सदा हवन्त) सदा आह्वान करते हैं।
टिप्पणी -
[अग्निः अग्रणीर्भवति (निरु০ ७.४.१४)। तथा “अग्ने नय सुपथा” (यजुः০ ४०.१६)।]