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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 103/ मन्त्र 1
अ॒ग्निमी॑डि॒ष्वाव॑से॒ गाथा॑भिः शी॒रशो॑चिषम्। अ॒ग्निं रा॒ये पु॑रुमीढ श्रु॒तं नरो॒ऽग्निं सु॑दी॒तये॑ छ॒र्दिः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । ई॒लि॒ष्व॒ । अव॑से । गाथा॑भि: । शी॒रऽशो॑चिषम् ॥ अ॒ग्निम् । रा॒ये । पु॒रु॒ऽमी॒ल्ह॒ । श्रु॒तम् । नर॑: । अ॒ग्निम् । सु॒ऽदी॒तये॑ । छ॒र्दि: ॥१०३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निमीडिष्वावसे गाथाभिः शीरशोचिषम्। अग्निं राये पुरुमीढ श्रुतं नरोऽग्निं सुदीतये छर्दिः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम् । ईलिष्व । अवसे । गाथाभि: । शीरऽशोचिषम् ॥ अग्निम् । राये । पुरुऽमील्ह । श्रुतम् । नर: । अग्निम् । सुऽदीतये । छर्दि: ॥१०३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 103; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
हे उपासक! तू (शीरशोचिषम्) सोई हुई ज्योति के रूप में सब में रम रहे, (अग्निम्) प्रकाशमय प्रभु की (गाथाभिः) सामगानों द्वारा (ईळिष्व=ईलिष्व) स्तुतियाँ किया कर। (पुरुमीळ्ह=पुरुमील्ह) हे पालक और परिपूर्ण प्रभु के स्तोता! तू (राये) आध्यात्मिक-धन की प्राप्ति के लिए (अग्निम्) जगन्नेता प्रभु की स्तुतियाँ किया कर, (श्रुतम्) जो कि वेदों में विश्रुत है। (नरः) हे नर-नारीरूप उपासको! तुम सब (अग्निम्) सर्वाग्रणी प्रभु की स्तुतियाँ किया करो, जो कि (सुदीतये) क्लेशों के क्षय करने के लिए (छर्दिः) छत्तवाले घर के सदृश है। [छर्दिः=गृहनाम (निघं০ ३.४)।]