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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 103/ मन्त्र 2
अग्न॒ आ या॑ह्य॒ग्निभि॒र्होता॑रं त्वा वृणीमहे। आ त्वाम॑नक्तु॒ प्रय॑ता ह॒विष्म॑ती॒ यजि॑ष्ठं ब॒र्हिरा॒सदे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । आ । या॒हि॒ । अ॒ग्निऽभि॑: । होता॑रम् । त्वा॒ । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥ आ । त्वाम् । अ॒न॒क्तु॒ । प्रऽय॑ता । ह॒विष्म॑ती । वजि॑ष्ठम् । ब॒र्हि:। आ॒ऽसदे॑ ॥१०३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्न आ याह्यग्निभिर्होतारं त्वा वृणीमहे। आ त्वामनक्तु प्रयता हविष्मती यजिष्ठं बर्हिरासदे ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । आ । याहि । अग्निऽभि: । होतारम् । त्वा । वृणीमहे ॥ आ । त्वाम् । अनक्तु । प्रऽयता । हविष्मती । वजिष्ठम् । बर्हि:। आऽसदे ॥१०३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 103; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(अग्ने) हे प्रकाशस्वरूप जगन्नेता! आप अपने (अग्निभिः) प्रज्वलित तेजों के साथ (आ याहि) प्रकट हूजिए। (त्वा होतारम्) आप दानी का (वृणीमहे) हम वरण करते हैं। (प्रयता) संयम-सम्पन्न हमारी बुद्धि (हविष्मती) समपर्णरूपी हवि की भेंट लेकर, (यजिष्ठम्) यज्ञों को सफल करनेवाले (त्वा) आपको (आ अनक्तु) पूर्णतया अभिव्यक्त करे, ताकि (बर्हिः) हृदयासनों पर आप (आसदे) आ विराजें।