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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 105

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 105/ मन्त्र 5
    सूक्त - पुरुन्हमा देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-१०५

    इन्द्रं॒ तं शु॑म्भ पुरुहन्म॒न्नव॑से॒ यस्य॑ द्वि॒ता वि॑ध॒र्तरि॑। हस्ता॑य॒ वज्रः॒ प्रति॑ धायि दर्श॒तो म॒हो दि॒वे न सूर्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । तम् । शु॒म्भ॒ । पु॒रु॒ऽह॒न्म॒न् । अव॑से । यस्य॑ । द्वि॒ता । वि॒ऽध॒र्तरि॑ ॥ हस्ता॑य । वज्र॑: । प्रत‍ि॑ । धा॒यि॒ । द॒र्श॒त: । म॒ह: । दि॒वे । न । सूर्य॑: ॥१०५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रं तं शुम्भ पुरुहन्मन्नवसे यस्य द्विता विधर्तरि। हस्ताय वज्रः प्रति धायि दर्शतो महो दिवे न सूर्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम् । तम् । शुम्भ । पुरुऽहन्मन् । अवसे । यस्य । द्विता । विऽधर्तरि ॥ हस्ताय । वज्र: । प्रत‍ि । धायि । दर्शत: । मह: । दिवे । न । सूर्य: ॥१०५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 105; मन्त्र » 5

    भाषार्थ -
    (पुरुहन्मन्) पापों का स्वयं हनन करनेवाले हे उपासक! तू (अवसे) आत्म-रक्षा के लिए (तं इन्द्रम्) उस परमेश्वर की (शुम्भ) शोभा को बढ़ा स्तुतियों द्वारा, (विधर्तरि) जगत् के धारण करने में (यस्य) जिसके कि (द्विता) दो रूप हैं। उस परमेश्वर ने (हस्ताय) पापों के हनन के लिए (दर्शतः) दर्शनीय (वज्रः) न्याय-वज्र (प्रति धायि) धारण किया हुआ है, (न) जैसे कि (दिवे) प्रकाश के लिए (महः सूर्यः) तेजस्वी-सूर्य को, उसने धारण किया हुआ है।

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