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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 109/ मन्त्र 1
स्वा॒दोरि॒त्था वि॑षू॒वतो॒ मध्वः॑ पिबन्ति गौ॒र्य:। या इन्द्रे॑ण स॒याव॑री॒र्वृष्णा॒ मद॑न्ति शो॒भसे॒ वस्वी॒रनु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठस्वा॒दो: । इ॒त्था । वि॒षु॒ऽवत॑: । मध्व॑: । पि॒ब॒न्ति॒ । गौ॒र्य: ॥ या: । इन्द्रे॑ण । स॒ऽयाव॑री: । वृष्णा॑ । मद॑न्ति । शो॒भसे॑ । वस्वी॑: । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥१०९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वादोरित्था विषूवतो मध्वः पिबन्ति गौर्य:। या इन्द्रेण सयावरीर्वृष्णा मदन्ति शोभसे वस्वीरनु स्वराज्यम् ॥
स्वर रहित पद पाठस्वादो: । इत्था । विषुऽवत: । मध्व: । पिबन्ति । गौर्य: ॥ या: । इन्द्रेण । सऽयावरी: । वृष्णा । मदन्ति । शोभसे । वस्वी: । अनु । स्वऽराज्यम् ॥१०९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 109; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(गौर्यः) शुक्ल अर्थात् सात्त्विक-चित्तवृत्तियाँ (स्वादोः) अत्यन्त स्वादु है, (विषूवतः) सांसारिक स्वादों से विलक्षण, (मध्वः) मधुर आनन्दरस का (पिबन्ति) पान करती हैं। (इत्था) यह सत्य है। (याः) जो शुक्ल अर्थात् सात्विक-चित्तवृत्तियाँ (इन्द्रेण) परमेश्वर के (सयावरीः) साथ विचरती हैं, (वृष्णा) वे आनन्दरसवर्षी परमेश्वर के साथ मिलकर (मदन्ति) सदा तृप्ति रहती हैं। (वस्वीः) ये शुक्ल अर्थात् सात्त्विक-चित्तवृत्तियाँ उपासक के लिए वसुरूप हैं, सम्पत्-रूप हैं, और (स्वराज्यम्) अपने आत्मिक-राज्य को (अनु) लक्ष्य बनाकर (शोभसे) शोभायमान होती हैं।