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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 111

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 111/ मन्त्र 2
    सूक्त - पर्वतः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-१११

    यद्वा॑ शक्र परा॒वति॑ समु॒द्रे अधि॒ मन्द॑से। अ॒स्माक॒मित्सु॒ते र॑णा॒ समिन्दु॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । वा॒ । श॒क्र॒ । प॒रा॒ऽवति॑ । स॒मु॒द्रे । अधि॑ । मन्द॑से ॥ अ॒स्माक॑म् । इत् । सु॒ते । र॒ण॒ । सम् । इन्दु॑ऽभि: ॥१११.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्वा शक्र परावति समुद्रे अधि मन्दसे। अस्माकमित्सुते रणा समिन्दुभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । वा । शक्र । पराऽवति । समुद्रे । अधि । मन्दसे ॥ अस्माकम् । इत् । सुते । रण । सम् । इन्दुऽभि: ॥१११.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 111; मन्त्र » 2

    भाषार्थ -
    (वा) तथा (शक्र) हे शक्तिशाली परमेश्वर! (परावति समुद्रे अधि) दूर तक फैले हुए समुद्र तथा अन्तरिक्ष में (यत्) जो भक्तिरस है उसका आप (मन्दसे) आनन्द लेते हैं। इसलिए (अस्माकम् इत्) हमारे भी (सुते) भक्तियज्ञों में आप (इन्दुभिः) हमारे भक्तिरसों द्वारा (सम् रण) सम्यक् रमण कीजिए, प्रसन्न हूजिए।

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