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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 116/ मन्त्र 1
मा भू॑म॒ निष्ट्या॑ इ॒वेन्द्र॒ त्वदर॑णा इव। वना॑नि॒ न प्र॑जहि॒तान्य॑द्रिवो दु॒रोषा॑सो अमन्महि ॥
स्वर सहित पद पाठमा । भू॒म॒ । निष्ट्या॑:ऽइव । इन्द्र॑ । त्वत् । अर॑णा:ऽइव ॥ वना॑नि । न । प्र॒ऽज॒हि॒तानि॑ । अ॒द्रि॒ऽव॒: । दु॒रोषा॑स: । अ॒म॒न्म॒हि॒ ॥११६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
मा भूम निष्ट्या इवेन्द्र त्वदरणा इव। वनानि न प्रजहितान्यद्रिवो दुरोषासो अमन्महि ॥
स्वर रहित पद पाठमा । भूम । निष्ट्या:ऽइव । इन्द्र । त्वत् । अरणा:ऽइव ॥ वनानि । न । प्रऽजहितानि । अद्रिऽव: । दुरोषास: । अमन्महि ॥११६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 116; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (त्वत्) आपसे (निष्ट्याः इव) बहिष्कृत किये गये-से (मा भूम) हम न हों, और (अरणाः इव मा भूम) आप में रमण न करनेवाले भी हम न हों। (अद्रिवः) हे पापविदारक-साधनों से सम्पन्न! (वनानि) भक्ति-भावनााओं का (न प्रजाहितानि) हमने परित्याग नहीं किया। (दुरोषासः) राग-द्वेष, ईर्ष्या आदि के जलन से पृथक् होकर (अमन्महि) हम आपका मनन कर रहे हैं।
टिप्पणी -
[निष्ट्या=निः+त्यप्। अरणाः=अ+रमणाः (रमणकर्त्तारः)। वनानि=वन संभक्तौ। अद्रिवः=आदृणाति एतेन (निरु০ ४.१.४), तद्वान् (सम्बद्धौ)। दुरोषासः=दुर (दूर)+रोषासः (रुष्), या दुर् (दूर)+ओषासः (उष् दाहे)। अथवा दु (उपतापे)+(रोषासः), या (दुर्)+ओषासः।]