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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 118/ मन्त्र 2
पौ॒रो अश्व॑स्य पुरु॒कृद्गवा॑म॒स्युत्सो॑ देव हिर॒ण्ययः॑। नकि॒र्हि दानं॑ परि॒मर्धि॑ष॒त्त्वे यद्य॒द्यामि॒ तदा भ॑र ॥
स्वर सहित पद पाठपौ॒र: । अश्व॑स्य । पु॒रु॒ऽकृत् । गवा॑म् । अ॒सि॒ । उत्स॑: । दे॒व॒ । हि॒र॒ण्यय॑: ॥ नकि॑: । हि । दान॑म् । प॒रि॒ऽमर्धि॑षत् । त्वे इति॑ । यत्ऽय॑त् । यामि॑ । तत् । आ । भ॒र॒ ॥११८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
पौरो अश्वस्य पुरुकृद्गवामस्युत्सो देव हिरण्ययः। नकिर्हि दानं परिमर्धिषत्त्वे यद्यद्यामि तदा भर ॥
स्वर रहित पद पाठपौर: । अश्वस्य । पुरुऽकृत् । गवाम् । असि । उत्स: । देव । हिरण्यय: ॥ नकि: । हि । दानम् । परिऽमर्धिषत् । त्वे इति । यत्ऽयत् । यामि । तत् । आ । भर ॥११८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 118; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
हे परमेश्वर! आप (पौरः) ब्रह्माण्ड-पुरी में बसे हुए हैं। (अश्वस्य) मन की, और (गवाम्) इन्द्रियों की शक्तियों को आप (पुरुकृत्) बहुत बढ़ाते हैं। (उत्सः) आप शक्तियों के स्रोत हैं। (देव) हे दिव्यगुणोंवाले! (हिरण्ययः) आप हितकर और रमणीय हैं, अथवा हिरण्यसदृश बहुमूल्य सम्पत्तिरूप हैं। (त्वे) आपके अधिकार में (दानम्) जो दान देना है उसे (नकिः) कोई भी शक्ति नहीं (परि मर्धिषत्) टाल सकती। हे परमेश्वर! मैं आपका उपासक (यद् यद् यामि) जो-जो आपसे याचना करता हूं (तत्) वह (आ भर) प्रदान कीजिए।
टिप्पणी -
[यामि=याच्ञाकर्मा (निघं০ ३.१९)।]