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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 118/ मन्त्र 1
श॑ग्ध्यू॒षु श॑चीपत॒ इन्द्र॒ विश्वा॑भिरू॒तिभिः॑। भगं॒ न हि त्वा॑ य॒शसं॑ वसु॒विद॒मनु॑ शूर॒ चरा॑मसि ॥
स्वर सहित पद पाठश॒ग्धि । ऊं॒ इति॑ । सु । श॒ची॒ऽप॒ते॒ । इन्द्र॑ । विश्वा॑भि: । ऊ॒तिऽभि॑: ॥ भग॑म् । न । हि । त्वा॒ । य॒शस॑म् । व॒सु॒ऽविद॑म् । अनु॑ । शू॒र॒ । चरा॑मसि ॥११८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
शग्ध्यूषु शचीपत इन्द्र विश्वाभिरूतिभिः। भगं न हि त्वा यशसं वसुविदमनु शूर चरामसि ॥
स्वर रहित पद पाठशग्धि । ऊं इति । सु । शचीऽपते । इन्द्र । विश्वाभि: । ऊतिऽभि: ॥ भगम् । न । हि । त्वा । यशसम् । वसुऽविदम् । अनु । शूर । चरामसि ॥११८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 118; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(शचीपते इन्द्र) हे प्रज्ञाओं के पति परमेश्वर! (विश्वाभिः) सब प्रकार की (ऊतिभिः) रक्षाओं के द्वारा आप हमें (सु शग्धि) उत्तम-शक्ति प्रदान कीजिए। आप (भगं न) ऐश्वर्य, धर्म, श्री, ज्ञान, वैराग्य के सदृश (यशसम्) यशस्वी हैं, (वसुविदम्) तथा आध्यात्मिक और सांसारिक सम्पत्तियाँ प्राप्त किये हुए हैं। (शूर) हे पराक्रमी! (हि) निश्चय से, हम (त्वा अनु चरामसि) आपके अनुचर हो गये हैं, आपकी आज्ञा के वशवर्ती हो गये हैं।