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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 122/ मन्त्र 2
आ घ॒ त्वावा॒न्त्मना॒प्त स्तो॒तृभ्यो॑ धृष्णविया॒नः। ऋ॒णोरक्षं॒ न च॑क्र्यो: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । घ॒ । त्वाऽवा॑न् । त्मना॑ । आ॒प्त: । स्तो॒तृऽभ्य॑: । धृ॒ष्णो॒ इति॑ । इ॒या॒न: ॥ ऋ॒णो: । अक्ष॑म् । न । च॒क्र्यो॑: ॥१२२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
आ घ त्वावान्त्मनाप्त स्तोतृभ्यो धृष्णवियानः। ऋणोरक्षं न चक्र्यो: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । घ । त्वाऽवान् । त्मना । आप्त: । स्तोतृऽभ्य: । धृष्णो इति । इयान: ॥ ऋणो: । अक्षम् । न । चक्र्यो: ॥१२२.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 122; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(धृष्णो) हे विघ्नों का पराभव करनेवाले प्रभो! (स्तोतृभ्यः) स्तोताओं की प्रसन्नता के लिए, उनके हृदयों में (इयानः) आते हुए, प्रकट होते हुए आप, (त्मना) स्वयमेव, (आप्तः) उन्हें प्राप्त होते हैं। (त्वावान्) इस कार्य में आप अपने-सदृश ही हैं। (न) जैसे बढ़ई, (चक्र्योः) रथ के दो चक्रों में (अक्षम्) धुरी डालकर, उन्हें (आ ऋणोः) साथ-साथ गति करनेवाले बना देता है, वैसे ही आप स्तोताओं में ज्ञान की धुरी डालकर, उन्हें आप अपने-साथ गति करने योग्य कर देते हैं—(घ) यह निश्चित है।
टिप्पणी -
[अक्षम्= An axis; knowledge (आप्टे)। ऋणोः=ऋण् गतौ। त्वावान्=“वतुप्रकरणे युष्मदस्मद्भ्यां छन्दसि सादृश्ये उपसंख्यानम्” (अ০ ५.२.३९ पर वार्तिक)—इति वतुप्।]