अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 134/ मन्त्र 5
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - निचृत्साम्नी पङ्क्तिः
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॒गास्ते॑ लाहणि॒ लीशा॑थी ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । इत्थ॑ । प्राक् । अपा॒क् । उद॑क् । अ॒ध॒राक् । आष्टे॑ । लाहणि॒ । लीशा॑थी ॥१३४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
इहेत्थ प्रागपागुदगधरागास्ते लाहणि लीशाथी ॥
स्वर रहित पद पाठइह । इत्थ । प्राक् । अपाक् । उदक् । अधराक् । आष्टे । लाहणि । लीशाथी ॥१३४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 134; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
हे स्त्रियो! (इह) इस पृथिवी में (एत्थ) आओ, जन्म लो—(प्राक्, अपाक्, उदक्, अधराक्) चाहे पृथिवी के पूर्व आदि किसी भी भूभाग में जन्म लो। (लाहणि) हे प्राप्त भोगों का परित्याग करनेवाली स्त्री! (ते) तेरे लिए (लीशाथी) असम्प्रज्ञात समाधि में “लीन” होना, तथा सम्प्रज्ञात समाधि में योगनिद्रा में “शयन” करना (आः) आरम्भ से ही नियत है।
टिप्पणी -
[लाहणि=ला (आदान, प्राप्त करना)+हणि (हन्=हिंसा, त्याग), सम्बुद्धौ। लीशाथी=लीन+शयन। आः=आसीत्; अर्थात् प्रारम्भ काल से ही वेदों में तेरे लिए यह मार्ग निर्दिष्ट है, अर्थात् गृहस्थकाल में तथा अगृहस्थ काल में तेरे लिए भोग का विधान है। यथा—“पत्युरनुव्रता भूत्वा सं नह्यस्वामृताय कम्” (अथर्व০ १४.१.४२)। इस मन्त्र में “अमृताय” पद द्वारा पत्नी के लिए मोक्ष का विधान किया है।]