अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 134/ मन्त्र 6
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - निचृत्साम्नी पङ्क्तिः
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॒गक्ष्लिली॒ पुच्छिली॑यते ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । इत्थ॑ । प्राक् । अपा॒क् । उद॑क् । अ॒ध॒राक्ऽअक्ष्लि॑ली । पुच्छिली॑यते ॥१३४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
इहेत्थ प्रागपागुदगधरागक्ष्लिली पुच्छिलीयते ॥
स्वर रहित पद पाठइह । इत्थ । प्राक् । अपाक् । उदक् । अधराक्ऽअक्ष्लिली । पुच्छिलीयते ॥१३४.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 134; मन्त्र » 6
भाषार्थ -
हे स्त्रियो! (इह) इस पृथिवी में (एत्थ) आओ, जन्म लो—(प्राक्, अपाक्, उदक्, अधराक्) चाहे पृथिवी के पूर्व आदि किसी भूभाग में जन्म लो। यह ध्यान रखो कि (अक्ष्लिली) इन्द्रियों के विषयों में अत्यन्त लीन हुई स्त्री (पुच्छिलीयते) पुच्छिल अर्थात् पूंछवाले पशु के सदृश हो जाती है।
टिप्पणी -
[अक्ष्लिली=अक्ष=इन्द्रियां=लिली=लीङ्,यङ्लुक्। पुच्छिलीयते=पुच्छिल (पशु)+आचारे क्यङ्।]