अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 134/ मन्त्र 2
इ॒हेत्थ प्रागपा॒गुद॑ग॒धरा॑ग्व॒त्साः पुरु॑षन्त आसते ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ह । इत्थ॑ । प्राक् । अपा॒क् । उद॑क् । अ॒ध॒राक् । व॒त्सा: । पुरु॑षन्त । आसते ॥१३४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इहेत्थ प्रागपागुदगधराग्वत्साः पुरुषन्त आसते ॥
स्वर रहित पद पाठइह । इत्थ । प्राक् । अपाक् । उदक् । अधराक् । वत्सा: । पुरुषन्त । आसते ॥१३४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 134; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
(इह) इस पृथिवी में (एत्थ) आओ, जन्म लो—(प्राक्, अपाक्, उदक्, अधराक्) चाहे पृथिवी के पूर्व आदि किसी भी प्रदेश में, किसी भी भूभाग में आओ, सर्वत्र (वत्साः) बच्चे (पुरुषन्तः आसते) पुरुष होकर पौरुषकर्म करते हैं। [अर्थात् पृथिवी के प्रत्येक प्रदेश में पौरुषकर्म करनेवाले बच्चे उत्पन्न होते हैं, इन पौरुष कर्मों का सम्बन्ध किसी विशेष भूभाग के साथ नहीं।]