अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 1
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च
छन्दः - स्वराडार्ष्यनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
भुगि॑त्य॒भिग॑तः॒ शलि॑त्य॒पक्रा॑न्तः॒ फलि॑त्य॒भिष्ठि॑तः। दु॒न्दुभि॑माहनना॒भ्यां जरितरोथा॑मो दै॒व ॥
स्वर सहित पद पाठभुक् । इ॑ति । अ॒भिऽग॑तु॒: । शल् । इ॑ति । अ॒पऽक्रा॑न्त॒: । फल् । इ॑ति । अ॒भिऽस्थि॑त: ॥ दुन्दुभि॑म् । आहनना॒भ्याम् । जरित: । आ । उथाम॑: । दै॒व ॥१३५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
भुगित्यभिगतः शलित्यपक्रान्तः फलित्यभिष्ठितः। दुन्दुभिमाहननाभ्यां जरितरोथामो दैव ॥
स्वर रहित पद पाठभुक् । इति । अभिऽगतु: । शल् । इति । अपऽक्रान्त: । फल् । इति । अभिऽस्थित: ॥ दुन्दुभिम् । आहननाभ्याम् । जरित: । आ । उथाम: । दैव ॥१३५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(भुग् इति) जो भोगी है, वह (अभिगतः) भोगों की ओर जाता है; (शल् इति) भोगों से जो अपना संवरण कर लेता है, अपने आपको बचा लेता है वह (अपक्रान्तः) भोगों के पीछे हट जाता है, भोगों का परित्याग कर देता है; (फल् इति) और जो जीवन के फल को प्राप्त करना चाहता है, वह (अभिष्ठितः) योगमार्ग में साक्षात् निष्ठावान् हो जाता है। (जरितः) हे वेदों का स्तवन करनेवाले! (दैव) देवाधिदेव परमेश्वर! इन उपर्युक्त सिद्धान्तों की (दुन्दुभिम्) डौंडी (आहननाभ्याम्) डौंडी पीटने के दण्डों द्वारा हम पीटते हैं, और (ओथामः=आ उथामः) प्रजा का उत्थान करते हैं।
टिप्पणी -
[भुग्, शल्, फल् (कर्तरि क्विप्)। शल्=संवरणे, अपने पर सम्यक् आवरण डाल लेना, ताकि वे भोगों के शिकार न बन सकें। यह आवरण आभ्यन्तर आवरण है, जो कि मन पर डाला जाता है, यम-नियम, तप, स्वाध्याय आदि का आवरण।]