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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 135

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 13
    सूक्त - देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त

    अ॑रंग॒रो वा॑वदीति त्रे॒धा ब॒द्धो व॑र॒त्रया॑। इरा॑मह॒ प्रशं॑स॒त्यनि॑रा॒मप॑ सेधति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र॒म्ऽग॒र: । वा॑वदीति । त्रे॒धा । ब॒द्ध: । व॑र॒त्रया॑ ॥ इ॑राम् । अह॒ । प्रशं॑स॒ति । अनि॑रा॒म् । अप॑ । से॒ध॒ति॒ ॥१३५.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरंगरो वावदीति त्रेधा बद्धो वरत्रया। इरामह प्रशंसत्यनिरामप सेधति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरम्ऽगर: । वावदीति । त्रेधा । बद्ध: । वरत्रया ॥ इराम् । अह । प्रशंसति । अनिराम् । अप । सेधति ॥१३५.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 13

    भाषार्थ -
    परन्तु संसारी मनुष्य, (अरंगरः) जो कि सांसारिक-भोगों के विषों का पर्याप्त सेवन करता रहता है, और जो (वरत्रया) अविद्या की रस्सी द्वारा (त्रेधा) तीन अर्थात् आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक दुःखों में या स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरों में (बद्धः) बन्धा हुआ है, वह (वावदीति) सांसारिक-भोगों की ही बार-बार चर्चा करता है, तथा (इराम्) सांसारिक खान-पान की (अह) ही (आ प्रशंसति) पूर्णतया प्रशंसा करता, और (अनिराम्) सांसारिक खान-पान से विपरीत आध्यात्मिक-तत्त्वों का (अप सेधति) निराकरण करता रहता है।

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