अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 2
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
को॑श॒बिले॑ रजनि॒ ग्रन्थे॑र्धा॒नमु॒पानहि॑ पा॒दम्। उत्त॑मां॒ जनि॑मां ज॒न्यानुत्त॑मां॒ जनी॒न्वर्त्म॑न्यात् ॥
स्वर सहित पद पाठको॒श॒बिले॑ । रजनि॒ । ग्रन्थे॑: । धा॒नम् । उ॒पानहि॑ । पा॒दम् ॥ उत्त॑मा॒म् । जनि॑माम् । ज॒न्या । अनुत्त॑मा॒म् । जनी॒न् । वर्त्म॑न् । यात् ॥१३५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
कोशबिले रजनि ग्रन्थेर्धानमुपानहि पादम्। उत्तमां जनिमां जन्यानुत्तमां जनीन्वर्त्मन्यात् ॥
स्वर रहित पद पाठकोशबिले । रजनि । ग्रन्थे: । धानम् । उपानहि । पादम् ॥ उत्तमाम् । जनिमाम् । जन्या । अनुत्तमाम् । जनीन् । वर्त्मन् । यात् ॥१३५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 2
भाषार्थ -
हे देवाधिदेव! (मन्त्र १) आप (उत्तमाम् जनिमाम्) उत्तम-जन्म (यात्) प्राप्त कराते हैं, तथा आप (उत्तमान् जन्यान्) उत्तम जन्मों, को प्राप्त पुरुषों को, तथा उत्तम जन्मों को प्राप्त (जनीन्) जननियों को, (वर्त्मन्) उत्तममार्ग में (यात्) चलाते हैं। ऐसे पुरुष और जननियाँ (कोशबिले) अपने हृदयकोशों में, चित्तों को या तो इस प्रकार ध्यान द्वारा निहित करते हैं, जैसे कि (रजनि=रजन्याम्) रात्रि के समय (कोशबिले) खजाने के पेट में (ग्रन्थेः) धन की थैली को (धानम्) निधिरूप में बड़ी सावधानी के साथ रखा जाता है, और या अभ्यस्त अभ्यासी हृदय-कोशों में चित्तों को ऐसी सुलभता के साथ निहित कर लेते हैं, जैसे कि चलने के लिए व्यक्ति (पादम्) अपने पैर को (उपानहि) जूती में आसानी से निहित करता है।