अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 135/ मन्त्र 3
सूक्त -
देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च
छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
अला॑बूनि पृ॒षात॑का॒न्यश्व॑त्थ॒पला॑शम्। पिपी॑लिका॒वट॒श्वसो॑ वि॒द्युत्स्वाप॑र्णश॒फो गोश॒फो जरित॒रोथामो॑ दै॒व ॥
स्वर सहित पद पाठअला॑बूनि । पृ॒षात॑का॒नि । अश्व॑त्थ॒ऽपला॑शम् ॥ पिपी॑लि॒का॒ । वट॒श्वस॑: । वि॒ऽद्युत् । स्वाप॑र्णश॒फ: । गोश॒फ: । जरित॒: । आ । उथाम: । दै॒व ॥१३५.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अलाबूनि पृषातकान्यश्वत्थपलाशम्। पिपीलिकावटश्वसो विद्युत्स्वापर्णशफो गोशफो जरितरोथामो दैव ॥
स्वर रहित पद पाठअलाबूनि । पृषातकानि । अश्वत्थऽपलाशम् ॥ पिपीलिका । वटश्वस: । विऽद्युत् । स्वापर्णशफ: । गोशफ: । जरित: । आ । उथाम: । दैव ॥१३५.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 3
भाषार्थ -
(अलाबूनि) जैसे तूम्बे नदी से पार करते हैं, वैसे हे परमेश्वर! आप भवसागर से पार करते हैं। (पृषातकानि) जैसे वायु वर्षा-जल-बिन्दुओं द्वारा पृथिवी को सींचती है, वैसे आप आनन्दरस की बूंदों द्वारा हमें सींच रहे हैं। (अश्वत्त्थ पलाशम्) कालरूपी अश्व पर परमेश्वर अधिष्ठातृरूप में स्थित है, वह पलभर में जगत् का अशन कर सकता है। (पिपीलिकावटश्वसः) वह चींटियों के बिलों में भी प्राणवायु पहुँचाता है। (विद्युत्स्वापर्णशफः) वह विद्युत् तथा विविध द्युतियों से सम्पन्न सूर्य-चन्द्र-तारागणों की, और उत्तम पत्तों से सम्पन्न, वनस्पतियों की जड़रूप है, मूल कारण है। (गोशफः) हमारी इन्द्रियों, भूमियों, तथा जङ्गम प्राणियों की वह जड़ है, मूल कारण है। (जरितः) हे वेदों का स्तवन करनेवाले! (दैव) हे देवाधिदेव! (ओत्थामः=आ उत्थामः) आपकी सहायता द्वारा हम उत्थान करते हैं।
टिप्पणी -
[अलाबूनि=(द्र০—२०.१३२.१-२)। पृषातकानि=पृषत=पृषु सेचने=जलबिन्दु, तथा “पृषत्यो मरुताम्” (निघं০ १.१५)। शफ=Root of a tree (आप्टे)। अवट=गर्त। श्वसः=श्वसन (वायु)। अश्वत्थ=अश्व (काल), यथा—“कालो अश्वो भवति” (अथर्व০ १९.५३.१)+स्थ। पलाशम्=पल+अश् (भोजने)। इसीलिए परमेश्वर को “अत्ता” कहते हैं। महाप्रलय में वह सबका अशन कर लेता है। गोशफः=गौ=इन्द्रियाँ, भूमि आदि (उणादि कोष २.९८)।]