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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 135/ मन्त्र 3
    ऋषिः - देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
    50

    अला॑बूनि पृ॒षात॑का॒न्यश्व॑त्थ॒पला॑शम्। पिपी॑लिका॒वट॒श्वसो॑ वि॒द्युत्स्वाप॑र्णश॒फो गोश॒फो जरित॒रोथामो॑ दै॒व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अला॑बूनि । पृ॒षात॑का॒नि । अश्व॑त्थ॒ऽपला॑शम् ॥ पिपी॑लि॒का॒ । वट॒श्वस॑: । वि॒ऽद्युत् । स्वाप॑र्णश॒फ: । गोश॒फ: । जरित॒: । आ । उथाम: । दै॒व ॥१३५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अलाबूनि पृषातकान्यश्वत्थपलाशम्। पिपीलिकावटश्वसो विद्युत्स्वापर्णशफो गोशफो जरितरोथामो दैव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अलाबूनि । पृषातकानि । अश्वत्थऽपलाशम् ॥ पिपीलिका । वटश्वस: । विऽद्युत् । स्वापर्णशफ: । गोशफ: । जरित: । आ । उथाम: । दैव ॥१३५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अलाबूनि) तूँबी आदि बेलें, (पृषातकानि) पृषातक [वृक्ष विशेष], (अश्वत्थपलाशम्) पीपल और पलाश वा ढाक [वृक्ष विशेष], (पिपीलिका) पिपीलिका [वृक्ष विशेष], (वटश्वसः) वटश्वस [वृक्ष विशेष], (विद्युत्) बिजुली [वृक्ष विशेष], (स्वापर्णशफः) स्वापर्णशफ [वृक्ष विशेष], और (गोशफः) गोशफ [वृक्ष विशेष] हैं, [उन सब में] (जरितः) हे स्तुति करनेवाले (दैव) परमात्मा को देवता माननेवाले विद्वान् ! (आ) सब ओर से (उथामः) हम उठते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि वाटिका, खेत आदि में अनेक लता बेलों और वृक्षों को लगाकर ठीक-ठीक उपकार लेकर सुखी होवें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(अलाबूनि) नञि लम्बेर्नलोपश्च। उ० १।८७। नञ्+लबि अवस्रंसने−ऊ, ऊकारस्य उकारः, स च णित्, नलोपश्च। तुम्बीलताः (पृषातकानि) अथ० १४।२।४८। पृषु सेचने−क+अत बन्धने−क्वुन्। वृक्षविशेषाः (अश्वत्थपलाशम्) पिप्पलपलाशवृक्षसमूहः (पिपीलिका) अथ० ७।६।७। अपि+पील रोधने−ण्वुल्, अकारलोपः टाप्, अत इत्त्वम्। पिपीलिका ऐलतेर्गतिकर्मणः निरु० ७।१३। वृक्षविशेषः (वटश्वसः) वट वेष्टने−अच्+श्वस प्राणने−अच्। वृक्षविशेषः (विद्युत्) वृक्षविशेषः (वटश्वसः) (स्वापर्णशफः) वृक्षविशेषः (गोशफः) वृक्षविशेषः (जरितः) म० १। हे स्तोतः (आ) समन्तात् (उथामः) उत्थामः। उच्चैर्भवामः (दैव) म० १। हे परमेश्वरोपासक विद्वन् ॥

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    विषय

    घरों को उत्तम बनाने के लिए

    पदार्थ

    १. हम घरों को उत्तम बनाने के लिए घरों में हे (जरितः) = हमारी वासनाओं को जीर्ण करनेवाले (दैव) = सब देवों को देवत्व प्राप्त करानेवाले प्रभो! (अलावूनि) = प्रिया कद्दू की बेलों को, (पृषातकानि) = दधि-मिश्रित आज्य [घृत] को, अश्वत्थपलाशम्-पीपल व ढाक के वृक्षों को, (पिपीलिका-अवट-श्वस:) = उन वट-वृक्षों को जिनकी खोलों में चीटियाँ प्राण धारण करती हैं (आ उथामः) = उत्थापित करते हैं। भोजन के लिए अलाबू व पृषातक का प्रयोग स्वास्थ्यप्रद होता है। छाया के लिए वट-वृक्ष का महत्त्व है-वट का दूध वीर्य-दोषों को दूर करने में सहायक है। ढाक व पीपल की समिधाएँ यज्ञाग्नि को प्रज्वलित करने के लिए उपयोगी है। एवं एक घर में इनका महत्त्व स्पष्ट है। २. इनके अतिरिक्त हम प्रकाश के लिए (विद्युत) = बिजली को घर में स्थापित करते हैं। इनके सिवाय हमारे घरों में (स्वापर्णशफ:) = [सु आपर्ण] उत्तम पंखोंवाले, अर्थात् पक्षी के समान वायुवेग से उड़ चलनेवाले घोड़ों के शफों को तथा (गोशफ:) = दूध देनेवाली गौओं के शफों को उत्थापित करते हैं। हमारे घरों में घोड़े व गौएँ हों। ये ही तो मनुष्य के बाएँ व दाएँ हाथ होते हैं। [स न:पवस्व शं गवे शं जनाय शमवते]।

    भावार्थ

    हमारे घर स्वास्थ्यप्रद भोजनों, यज्ञिय वृक्षों व घोड़े व गौ से युक्त हों।

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    भाषार्थ

    (अलाबूनि) जैसे तूम्बे नदी से पार करते हैं, वैसे हे परमेश्वर! आप भवसागर से पार करते हैं। (पृषातकानि) जैसे वायु वर्षा-जल-बिन्दुओं द्वारा पृथिवी को सींचती है, वैसे आप आनन्दरस की बूंदों द्वारा हमें सींच रहे हैं। (अश्वत्त्थ पलाशम्) कालरूपी अश्व पर परमेश्वर अधिष्ठातृरूप में स्थित है, वह पलभर में जगत् का अशन कर सकता है। (पिपीलिकावटश्वसः) वह चींटियों के बिलों में भी प्राणवायु पहुँचाता है। (विद्युत्स्वापर्णशफः) वह विद्युत् तथा विविध द्युतियों से सम्पन्न सूर्य-चन्द्र-तारागणों की, और उत्तम पत्तों से सम्पन्न, वनस्पतियों की जड़रूप है, मूल कारण है। (गोशफः) हमारी इन्द्रियों, भूमियों, तथा जङ्गम प्राणियों की वह जड़ है, मूल कारण है। (जरितः) हे वेदों का स्तवन करनेवाले! (दैव) हे देवाधिदेव! (ओत्थामः=आ उत्थामः) आपकी सहायता द्वारा हम उत्थान करते हैं।

    टिप्पणी

    [अलाबूनि=(द्र০—२०.१३२.१-२)। पृषातकानि=पृषत=पृषु सेचने=जलबिन्दु, तथा “पृषत्यो मरुताम्” (निघं০ १.१५)। शफ=Root of a tree (आप्टे)। अवट=गर्त। श्वसः=श्वसन (वायु)। अश्वत्थ=अश्व (काल), यथा—“कालो अश्वो भवति” (अथर्व০ १९.५३.१)+स्थ। पलाशम्=पल+अश् (भोजने)। इसीलिए परमेश्वर को “अत्ता” कहते हैं। महाप्रलय में वह सबका अशन कर लेता है। गोशफः=गौ=इन्द्रियाँ, भूमि आदि (उणादि कोष २.९८)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prajapati

    Meaning

    Just as the gourd helps us to cross over the water, so does the Lord help us cross the seas of existence. Just as rain sprinkles the earth, so does the Lord bless us with joy, the Lord that rides the chariot of Time and withdraws his creation in a moment of time. He gives the energy of breath even to the ants. He is the original cause of thunder and lightning and the root of leaves and herbs. He also is the root and root-mover of the stars and planets and the inspirer of our senses and mind. O celebrants of Divinity, O Lord Divine of all that exists, let us all rise with divine inspiration.

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    Translation

    O devoteé, O man desierous of God, let us be upto attain the benifit of the trees: Alabu, Prishatak, Ashvath, palasha, Pipilika, Vatashvasa, Yidyut, Svaparna shafab and Goshafah.

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    Translation

    O devotee, O man desirous of God, Iet us be upto attain the benefit of the trees: Alabu, Prishatak, Ashvath, palasha, Pipilika, Vatashvasa, Yidyut, Svaparna shafah and Goshafah.

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    Translation

    How does the creation stand after breaking into two i.e., male and female? Ans: Like the cow’s hoof split into two. Thus do we explain thy sayings, O praise-singer.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(अलाबूनि) नञि लम्बेर्नलोपश्च। उ० १।८७। नञ्+लबि अवस्रंसने−ऊ, ऊकारस्य उकारः, स च णित्, नलोपश्च। तुम्बीलताः (पृषातकानि) अथ० १४।२।४८। पृषु सेचने−क+अत बन्धने−क्वुन्। वृक्षविशेषाः (अश्वत्थपलाशम्) पिप्पलपलाशवृक्षसमूहः (पिपीलिका) अथ० ७।६।७। अपि+पील रोधने−ण्वुल्, अकारलोपः टाप्, अत इत्त्वम्। पिपीलिका ऐलतेर्गतिकर्मणः निरु० ७।१३। वृक्षविशेषः (वटश्वसः) वट वेष्टने−अच्+श्वस प्राणने−अच्। वृक्षविशेषः (विद्युत्) वृक्षविशेषः (वटश्वसः) (स्वापर्णशफः) वृक्षविशेषः (गोशफः) वृक्षविशेषः (जरितः) म० १। हे स्तोतः (आ) समन्तात् (उथामः) उत्थामः। उच्चैर्भवामः (दैव) म० १। हे परमेश्वरोपासक विद्वन् ॥

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