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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 135/ मन्त्र 11
    ऋषिः - देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च छन्दः - निचृदार्ष्यनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
    61

    त्वमि॑न्द्र श॒र्मरि॑णा ह॒व्यं पारा॑वतेभ्यः। विप्रा॑य स्तुव॒ते व॑सु॒वनिं॑ दुरश्रव॒से व॑ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । इ॑न्द्र । श॒र्म । रि॑णा: । ह॒व्यम् । परा॑वतेभ्य: ॥ विप्रा॑य । स्तुव॒ते । व॑सुव॑निम् । दुरश्रव॒से । व॑ह ॥१३५.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमिन्द्र शर्मरिणा हव्यं पारावतेभ्यः। विप्राय स्तुवते वसुवनिं दुरश्रवसे वह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । इन्द्र । शर्म । रिणा: । हव्यम् । परावतेभ्य: ॥ विप्राय । स्तुवते । वसुवनिम् । दुरश्रवसे । वह ॥१३५.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 11
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (त्वम्) तूने (शर्म) शरण और (हव्यम्) हव्य [विद्वानों के योग्य अन्न] (पारावतेभ्यः) पार और अपार देशवाले लोगों के लिये (रिणाः) पहुँचाया है। (स्तुवते) स्तुति करनेवाले (विप्राय) बुद्धिमान् के लिये (वसुवनिम्) धनों का सेवन (दुरश्रवसे) दुष्ट अपयश मिटाने को (वह) प्राप्त करा ॥११॥

    भावार्थ

    राजा दूर और समीपवाली प्रजा को शरण में रख कर विद्या और धन से उनकी उन्नति करे ॥११॥

    टिप्पणी

    संहिता के (शर्मरिणाः) एक पद के स्थान पर [शर्म रिणाः] दो पद मानकर हमने अर्थ किया है ॥ ११−(त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (शर्म) शरणम्। सुखम् (रिणाः) री गतिरेषणयोः−लङ्। अरिणाः। प्रापितवानसि (हव्यम्) हु−यत्। देवयोग्यान्नम् (पारावतेभ्यः) पार+अवार−वत्, अण्, पृषोदरादिरूपम्। पारावतघ्नीं पारावारघातिनीं पारं परं भवत्यवारमवरम्−निरु० २।२४। पारावारदेशे विद्यमानेभ्यः (विप्राय) मेधाविने (स्तुवते) स्तुतिं कुर्वते (वसुवनिम्) छन्दसि वनसनरक्षिमथाम्। पा० ३।२।२७। वसु+वन सम्भक्तौ−इन्। धनानां सेवनम् (दुरश्रवसे) क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० २।३।१४। इति तुमुनः कर्मणिः चतुर्थी। दुर् दुष्टम् अश्रवः अपयशः, तन्नाशयितुम्। दुष्टापकीर्तिनाशनाय (वह) प्रायय ॥

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    विषय

    'पारावत'

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (त्वम्) = आप (पारावतेभ्य:) = [परात् शत्रोः अंहकारात् ज्ञानोपदेशेन अवति] ज्ञानोपदेश द्वारा अहंकाररूप शत्रु से बचानेवाले ज्ञानियों के लिए (शर्म) = सुख को व (हव्यम्) = हव्य पदार्थों को-जीवन के लिए आवश्यक यज्ञिय पदार्थों को (रिणा:) = प्राप्त कराते हैं। २. हे प्रभो। आप (विप्राय) = [विप्रा पूरणे] अपनी कमियों को दूर करनेवाले दुरभवसे [दुई हिंसायाम्, दुरंश्रवो यस्य]-शत्रुसंहारक ज्ञानवाले (स्तुवते) = स्तोता के लिए (वसुवनिं वह) = निवास के लिए आवश्यक धन के संभजन को (वह) = प्राप्त कराइए।

    भावार्थ

    हम ज्ञान द्वारा अहंकाररूप शत्रु से बचानेवाले बनें। प्रभु हमें सुख व हव्य पदार्थों को प्राप्त कराएंगे। हम अपनी न्यूनताओं को दूर करनेवाले, वासनासंहारक ज्ञानवाले व स्तोता बनें। प्रभु हमारे लिए निवास को उत्तम बनानेवाले धन का संभजन करेंगे।

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) हे परमेश्वर! (त्वम्) आप, (पारावतेभ्यः१) पराविद्या और अवराविद्या के गुरुओं से, (शर्मरिणा) सुखदायी मार्ग द्वारा हमें (हव्यम्) अध्यात्म-हवि (आ वह) प्राप्त कराइए। (दुर श्रवसे) जो दुर्मति मनुष्य पहले श्रवण-मनन से रहित था, परन्तु जो अब (विप्राय) मेधावी बनकर (स्तुवते) आपकी स्तुतियाँ करने लगा है, उसके लिए भी (वसुवनिम्) भक्ति-सम्पत् (आ वह) प्राप्त कराइए।

    टिप्पणी

    [शर्मरिणा=शर्म=सुख (निघं০ ३.६) रा=दाने+इन्+तृतीयैकवचन। पारावत=पारं परं भवति, अवतम्=अवारमवरम् (निरु০ २.७.२४)। दुरश्रवसे=दुर्+अश्रवसे। वसुवनिम्=वसु (सम्पत्)+वनि (वन संभक्तौ)। शर्मरिणा=शर्मरिणा+आ+वह। शर्मरिणा से “आ” का छेद होकर “वह” के साथ अन्वित होता है।] [१. अथवा 'पारावतेभ्यः' पार+अवत+पंचमी विभक्ति बहुवचन। अर्थात् "भवसागर से पार करनेवाले" "अवतेभ्यः" अवत सदृश= कूप सदृश गम्भीर गुरुओं से। अवतः कूपः (निघं० ३.२३)।]

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    विषय

    जीव, ब्रह्म, प्रकृति।

    भावार्थ

    अथ तिस्रो भूतेच्छदः। भा०-हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (त्वम्) तू (पारावतेभ्यः) परब्रह्म में शरण प्राप्त करने वाले ब्रह्मज्ञानियों को (शर्म) सुखकर (हव्यं) अन्न और धन (रिणाः=ऋणाः) प्रदान कर और (दूरश्रवसे) दूर तक परमपद तक श्रवण करने वाले बहुश्रुत, अतिविख्यात, यशस्वी, अथवा उच्चारण से वेद पाठ करने वाले या उत्तम व्याख्याता, (स्तुवते) स्तुति करने हारे उपदेष्टा (विप्राय) मेधावी विद्वान् को भी (वसु) धन (नि वह) प्राप्त करा, प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    missing

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prajapati

    Meaning

    O ruler of knowledge and power, Indra, by simple and peaceful means and methods bring the wealth of knowledge, prosperity and peace worthy of yajnic development from the scholars of scientific and ultimate Spiritual enlightenment for the seekers of the knowledge of science and spirit and for the celebrant devotee for the elimination of the disreputation of knowledge and power flowing from it.

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    Translation

    O mighty ruler, you vouchsafe shelter and food for the people living far and wide. You give the man of prayer and knowledge plentiful wealth to drive away disfame.

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    Translation

    O mighty ruler, you vouchsafe shelter and food for the people living far and wide. You give the man of prayer and knowledge plentiful wealth to drive away disfame.

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    Translation

    O fortunate man of wealth and riches, thou shouldst afford shelter food and money to the persons, who are given to deep meditation of and devotion to God in an advanced stage. Thou shouldst also give shelter and wealth to the praise-singing, wise and learned person who is well-known far and wide and recites the Vedic verses in high tones.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    संहिता के (शर्मरिणाः) एक पद के स्थान पर [शर्म रिणाः] दो पद मानकर हमने अर्थ किया है ॥ ११−(त्वम्) (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (शर्म) शरणम्। सुखम् (रिणाः) री गतिरेषणयोः−लङ्। अरिणाः। प्रापितवानसि (हव्यम्) हु−यत्। देवयोग्यान्नम् (पारावतेभ्यः) पार+अवार−वत्, अण्, पृषोदरादिरूपम्। पारावतघ्नीं पारावारघातिनीं पारं परं भवत्यवारमवरम्−निरु० २।२४। पारावारदेशे विद्यमानेभ्यः (विप्राय) मेधाविने (स्तुवते) स्तुतिं कुर्वते (वसुवनिम्) छन्दसि वनसनरक्षिमथाम्। पा० ३।२।२७। वसु+वन सम्भक्तौ−इन्। धनानां सेवनम् (दुरश्रवसे) क्रियार्थोपपदस्य च कर्मणि स्थानिनः। पा० २।३।१४। इति तुमुनः कर्मणिः चतुर्थी। दुर् दुष्टम् अश्रवः अपयशः, तन्नाशयितुम्। दुष्टापकीर्तिनाशनाय (वह) प्रायय ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [পরম্ ঐশ্বর্যবান্ রাজন্] (ত্বম্) তুমি (শর্ম) আশ্রয় এবং (হব্যম্) হব্য [বিদ্বানদের যোগ্য অন্ন] (পারাবতেভ্যঃ) পার এবং অপার দেশের লোকদের জন্য (রিণাঃ) প্রেরণ করো। (স্তুবতে) স্তুতিকারী (বিপ্রায়) বুদ্ধিমানের জন্য (বসুবনিম্) ধনের সেবন (দুরশ্রবসে) দুষ্ট অপকীর্তি দূর করার জন্য (বহ) প্রাপ্ত করাও ॥১১॥

    भावार्थ

    রাজার উচিত নিকট ও দূরের প্রজাদের আশ্রয়ে রেখে বিদ্যা ও ধন দিয়ে তাঁদের উন্নতি করা॥১১॥ সংহিতার (শর্মরিণাঃ) এক পদের স্থানে [শর্ম রিণাঃ] দুটি পদ মেনে আমি অর্থ করেছি ॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (ত্বম্) আপনি, (পারাবতেভ্যঃ১) পরাবিদ্যা এবং অবরাবিদ্যার গুরুদের মাধ্যমে, (শর্মরিণা) সুখদায়ী মার্গ দ্বারা আমাদের (হব্যম্) আধ্যাত্ম-হবি (আ বহ) প্রাপ্ত করান। (দুর শ্রবসে) যে দুর্মতি মনুষ্য প্রথমে শ্রবণ-মনন রহিত ছিল, কিন্তু যে এখন (বিপ্রায়) মেধাবী হয়ে (স্তুবতে) আপনার স্তুতি করে, তাঁর জন্যও (বসুবনিম্) ভক্তি-সম্পৎ (আ বহ) প্রাপ্ত করান।

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