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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 135 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 135/ मन्त्र 5
    ऋषिः - देवता - प्रजापतिरिन्द्रश्च छन्दः - स्वराडार्ष्यनुष्टुप् सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
    142

    प॒त्नी यदृ॑श्यते प॒त्नी यक्ष्य॑माणा जरित॒रोथामो॑ दै॒व। हो॒ता वि॑ष्टीमे॒न ज॑रित॒रोथामो॑ दै॒व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒त्नी । यत् । दृ॑श्यते । प॒त्नी । यक्ष्य॑माणा । जरित॒: ।आ । उथाम॑: । दै॒व ॥ हो॒ता । वि॑ष्टीमे॒न । जरित॒: । आ । उथाम॑:। दै॒व ॥१३५.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पत्नी यदृश्यते पत्नी यक्ष्यमाणा जरितरोथामो दैव। होता विष्टीमेन जरितरोथामो दैव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पत्नी । यत् । दृश्यते । पत्नी । यक्ष्यमाणा । जरित: ।आ । उथाम: । दैव ॥ होता । विष्टीमेन । जरित: । आ । उथाम:। दैव ॥१३५.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 135; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (पत्नी) पत्नी (यत्) यहाँ पर (यक्ष्यमाणा) पूजी जाती हुई (पत्नी) पत्नी (दृश्यते) दीखती है, [वहाँ] (जरितः) हे स्तुति करनेवाले (दैव) परमात्मा को देवता माननेवाले विद्वान् ! (आ) सब ओर से (उथामः) हम उठते हैं। (विष्टीमेन) विशेष कोमलपन के साथ (होता) तू दाता है, (जरितः) हे स्तुति करनेवाले (देव) परमात्मा को देवता माननेवाले विद्वान् ! (आ) सब ओर से (उथामः) हम उठते हैं ॥॥

    भावार्थ

    पत्नी और पति गुणवान् और परमेश्वरभक्त होकर आनन्द भोगें ॥॥

    टिप्पणी

    −(पत्नी) वेदविधानेनोढा। गृहिणी (यत्) यत्र (दृश्यते) प्रेक्ष्यते (पत्नी) (यक्ष्यमाणा) पूज्यमाना (जरितः, आ, उथामः, दैव) म० १, ३। (होता) त्वं दातासि (विष्टीमेन) वि+ष्टीम क्लेदे−घञ्। विशेषेण आर्द्रीभावेन। कोमलत्वेन। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    यक्ष्यमाणा होता

    पदार्थ

    १. हे (जरितः) = हमारी वासनाओं को जीर्ण करनेवाले (दैव) = देवों को देवत्व प्राप्त करानेवाले प्रभो! (यत्) = जब (पत्नी) = गृह-पत्नी (यक्ष्यमाणा) = यज्ञों को करती हुई-यज्ञों की कामनावाली होती हुई पत्नी (दृश्यते) = सचमुच घर का पालन करनेवाली दिखती है तो (आ उथाम:) = हम घरों को सब प्रकार से उन्नत करनेवाले होते हैं। जिस घर में गृहपत्नी यज्ञ आदि उत्तम कर्मों की वृत्तिवाली होती है, वह घर पवित्र वातावरणवाला होता हुआ सदा उन्नत होता है। २.हे (जरितः) = वासनाओं को जीर्ण करनेवाले (दैव) = देवों को देवत्व प्राप्त करानेवाले प्रभो! [यत्] जब घर में गृहपति (विष्टीमेन) = बड़े स्नेहार्द्र हृदय से [ष्टीम आर्दीभावे] (होता) = यज्ञों में आहुति देनेवाला [दृश्यते] दिखता है तो हम (आ उथामः) = घरों को सर्वथा ऊपर उठानेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    जिस घर में पति-पत्नी यज्ञिय वृत्तिवाले होते हैं वह घर सदा उन्नत होता चलता हैं।

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    भाषार्थ

    (जरितः) हे वेदों का स्तवन करनेवाले! (दैव) हे देवाधिदेव परमेश्वर! (पत्नी) विवाहित संस्कार द्वारा प्राप्त हुई पत्नी, तभी (पत्नी) पत्नी (दृश्यते) प्रतीत होती है, (य=यद्) जब कि वह (यक्ष्यमाणा) विवाह-संस्कार द्वारा सत्कृत हो रही होती है, (आ उथामः) तब हमारा पूर्णरूप से उत्थान होता है, उन्नति होती है। तथा (जरितः) हे वेदोपदेष्टः! (दैव) हे देवाधिदेव परमेश्वर! जब कि (होता) विवाह-संस्कार में आहुतियाँ डालनेवाला पति (विष्टीमेन) विशेषतया स्नेहार्द्रहृदय द्वारा पत्नी को स्वीकार कर लेता है, तभी (ओथामः=आ उथामः) हमारा उत्थान होता है, हमारी समुन्नति होती है।

    टिप्पणी

    [जरितः=जरिता स्तोता (निघं০ ३.१६)। पत्नी=पत्युर्नो यज्ञ-संयोगे (अष्टा০ ४.१.३३)। होता=हु दाने, आहुतियाँ देनेवाला। विष्टीमेन=वि+ष्टीम (आर्द्रीभावे) यक्ष्यमाणा=यक्ष् पूजायाम्; अथवा जो यज्ञ करनेवाली होगी। पति के साथ मिलकर विवाह-संस्कार में यज्ञ करेगी (यज्=देवपूजा)।]

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    विषय

    जीव, ब्रह्म, प्रकृति।

    भावार्थ

    (पत्नी) संसार का पालन करने वाली प्रकृति (यक्ष्यमाणा) परमेश्वर से संगत होती हुई (पत्नी इव दृश्यते) पत्नी के समान दिखाई देती है। और (एनाम् विष्टः) इसके भीतर प्रविष्ट परमेश्वर इसमें बलाधान करने वाला होकर (होता) होता, उसका वशकर्ता है। हे (जरितः दैव) स्तुतिशील विद्वन् ! हम (आवदामः) इसी प्रकार जानते हैं अन्यों को प्रवचन करते हैं। इस मन्त्र का शुद्ध पाठ संदिग्ध है। कोष्ठगत पाठ हमारा अनुमित है।

    टिप्पणी

    ऋग्वेद परिशिष्टान्तर्गतः प्रवल्हिकापाठः पादटिप्पण्यां प्रदर्शितः। ग्रीफिथ ह्विटनीराथसेवकलालमुद्रितसंहितासु प्रवल्हिकात आरभ्य ‘आदित्या ह जरति’ इति पर्यन्तो ग्रन्थोऽधोलिखितरूपणोपलभ्यते। ॥ १३३॥ विततौ किरणौ द्वौ तावापिनष्टि पुरुषः। दुन्दुभिमाहनाभ्याम्। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे॥ १॥ मातुष्टे किरणौ द्वौ निवृतः पुरुषाद् दृतिः। कोशबिले। न वै०॥२॥ निगृह्य कर्णकौ द्वौ निरायच्छति मध्यमे। रज्जुनि ग्रन्थेर्दानम्। न वै०॥३॥ उत्तानायां शयानायां तिष्ठन्तमवगूहति। उपानहि पादम्। न वै०॥४॥ श्लक्ष्णायां श्लक्ष्णिकायां श्लक्ष्णमेवागूहति। उत्तराञ्जनीमाञ्जन्याम्। न वै०॥५॥ अवश्लक्ष्ण मिव भ्रंशदन्तर्लोमवति हृदे। उत्तराञ्जनीं वर्त्मन्याम्। न वै०॥६॥ ॥१३४॥ इहेत्था प्राग्पागुदगधरागासन्ना उदभिर्यथा। अलाबूनि॥१॥ इहे०। वत्साः प्रुषन्त आसते। पृपातकानि॥ २॥ इहे०। स्थालीपाको विलीयते। अश्वत्थपलाशम्॥३॥ सा वै स्पृष्टा विलीयते। विप्रुट॥४॥ इहे०। उष्णे लोहे न लीप्सेथाः। चमसः॥ अशिश्लिक्षुं शिश्लिक्षते॥ पिपीलिकावटः। ॥१३५॥ भुगित्यभिगतः। श्वा॥१॥ शलित्यपक्रान्तः पर्णशदः॥२॥ फलित्यभिष्ठितः। गोशफः॥३॥ वी इमे देवाः अक्रंसताध्वर्यो क्षिप्रं प्रचर। सुषदमिद् गवामस्ति प्रखुद॥४॥.....…………….॥५॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    missing

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Prajapati

    Meaning

    O celebrants of life, O lord divine, a wife is seen as wife when she is honoured and accepted as such while offering oblations into the sacred fire, whereby we rise in life, and when the husband, performer of yajna, showers her with the sweetness of his love whereby, too, O celebrant, O lord divine, we rise in life.

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    Translation

    Where the wife is beheld respected there O devotee. O man desirous of God, we rise up in all aspects and spheres and you are the giver of gift with special generosity. O devotee, O man desirous of God, we rise up alround

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    Translation

    Where the wife is beheld respected there O devotee. Oman desirous of God, we rise up in all aspects and spheres and you are the giver of gift with special generosity. O devotee, O man desirous of God, we rise up alround.

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    Translation

    O praise-singing learned persons, the Prakrit!, the nourisher of the world, being attached to the Almighty appears as it were the supporting wife of Him i.e., protecting and feeding His creatures. He Himself, pervading in it, is the Great Giver and Upholder. Thus we know and proclaim it to all.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    −(पत्नी) वेदविधानेनोढा। गृहिणी (यत्) यत्र (दृश्यते) प्रेक्ष्यते (पत्नी) (यक्ष्यमाणा) पूज्यमाना (जरितः, आ, उथामः, दैव) म० १, ३। (होता) त्वं दातासि (विष्टीमेन) वि+ष्टीम क्लेदे−घञ्। विशेषेण आर्द्रीभावेन। कोमलत्वेन। अन्यद् गतम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকর্তব্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (পত্নী) পত্নী (যৎ) এখানে (যক্ষ্যমাণা) পূজ্যমান (পত্নী) পত্নী হিসেবে (দৃশ্যতে) দৃশ্যমান, [সেখানে] (জরিতঃ) হে স্তুতিকারী (দৈব) পরমাত্মাকে দেবতা মান্যকারী বিদ্বান! (আ) সর্ব দিক থেকে (উথামঃ) আমরা উত্থিত হই। (বিষ্টীমেন) বিশেষ কোমলতার সহিত (হোতা) তুমি দাতা, (জরিতঃ) হে স্তুতিকারী (দেব) পরমাত্মাকে দেবতা মান্যকারী বিদ্বান! (আ) সর্ব দিক থেকে (উথামঃ) আমরা উত্থিত হই॥৫॥

    भावार्थ

    পত্নী এবং পতি গুণবান এবং পরমেশ্বরভক্ত হয়ে আনন্দ উপভোগ করুক ॥৫॥

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    भाषार्थ

    (জরিতঃ) হে বেদের স্তবনকারী! (দৈব) হে দেবাধিদেব পরমেশ্বর! (পত্নী) বিবাহিত সংস্কার দ্বারা প্রাপ্ত পত্নী, তখনই (পত্নী) পত্নী (দৃশ্যতে) প্রতীত হয়, (য=যদ্) যখন সে (যক্ষ্যমাণা) বিবাহ-সংস্কার দ্বারা সৎকৃত হয়/হতে থাকে, (আ উথামঃ) তখন আমাদের পূর্ণরূপে উত্থান হয়, উন্নতি হয়। তথা (জরিতঃ) হে বেদোপদেষ্টঃ! (দৈব) হে দেবাধিদেব পরমেশ্বর! তখন (হোতা) বিবাহ-সংস্কারে আহুতি প্রদানকারী পতি (বিষ্টীমেন) বিশেষভাবে স্নেহার্দ্রহৃদয় দ্বারা পত্নীকে স্বীকার করে নেয়, তখনই (ওথামঃ=আ উথামঃ) আমাদের উত্থান হয়, আমাদের সমুন্নতি হয়।

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