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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 138/ मन्त्र 1
म॒हाँ इन्द्रो॒ य ओज॑सा प॒र्जन्यो॑ वृष्टि॒माँ इ॑व। स्तोमै॑र्व॒त्सस्य॑ वावृधे ॥
स्वर सहित पद पाठम॒हान् । इन्द्र॑: । य: । ओज॑सा । प॒र्जन्य॑: । वृ॒ष्टि॒मान्ऽइ॑व ॥ स्तोमै॑: । व॒त्सस्य॑ । व॒वृ॒धे॒ ॥१३८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
महाँ इन्द्रो य ओजसा पर्जन्यो वृष्टिमाँ इव। स्तोमैर्वत्सस्य वावृधे ॥
स्वर रहित पद पाठमहान् । इन्द्र: । य: । ओजसा । पर्जन्य: । वृष्टिमान्ऽइव ॥ स्तोमै: । वत्सस्य । ववृधे ॥१३८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 138; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(यः इन्द्रः) जो परमेश्वर (ओजसा) निज ओज के कारण (महान्) सर्वतो महान् है, वह (पर्जन्यः इव) मेघ के सदृश (वृष्टिमान्) सुखों और आनन्दरस की वर्षा कर रहा है। वह (वत्सस्य) पुत्र के सदृश उपासक के (स्तोमैः) स्तुतिगानों द्वारा (वावृधे) उपासक की वृद्धि करता है।