अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 14
गि॒रा वज्रो॒ न संभृ॑तः॒ सब॑लो॒ अन॑पच्युतः। व॑व॒क्ष ऋ॒ष्वो अस्तृ॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठगि॒रा । वज्र॑: । न । सम्ऽभृ॑त: । सऽब॑ल: । अन॑पऽच्युत: ॥ व॒व॒क्षे । ऋ॒ष्व । अस्तृ॑त: ॥१३७.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
गिरा वज्रो न संभृतः सबलो अनपच्युतः। ववक्ष ऋष्वो अस्तृतः ॥
स्वर रहित पद पाठगिरा । वज्र: । न । सम्ऽभृत: । सऽबल: । अनपऽच्युत: ॥ ववक्षे । ऋष्व । अस्तृत: ॥१३७.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 14
भाषार्थ -
(वज्रः न) वह परमेश्वर वज्र के सदृश दुष्कर्मियों का विनाशक है। (गिरा) स्तुति-प्रार्थना की वाणी द्वारा (संभृतः) रक्षा के लिए वह संनद्ध कर लिया जाता है। (सबलः) वह बलवान् है, (अनपच्युतः) और किसी भी शक्ति द्वारा न्याय-पक्ष से च्युत नहीं किया जा सकता। (ववक्षे) वह संसार-भार का वहन कर रहा है। (ऋष्वः) वह महान् है, (अस्तृतः) अविनाशी है।
टिप्पणी -
[अस्तृतः; स्तृणाति वधकर्मा (निघं০ २.१९)। ऋष्वः=महन्नाम (निघं০ ३.३)।