अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 1
सूक्त - शिरिम्बिठिः
देवता - अलक्ष्मीनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त १३७
यद्ध॒ प्राची॒रज॑ग॒न्तोरो॑ मण्डूरधाणिकीः। ह॒ता इन्द्र॑स्य॒ शत्र॑वः॒ सर्वे॑ बुद्बु॒दया॑शवः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ह॒ । प्राची॑: । अज॑गन्त । उर॑: । म॒ण्डू॒र॒ऽधा॒णि॒की॒: ॥ ह्व॒ता: । इन्द्र॑स्य । शत्र॑व: । सर्वे॑ । बु॒द्बु॒दऽया॑शव: ॥१३७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्ध प्राचीरजगन्तोरो मण्डूरधाणिकीः। हता इन्द्रस्य शत्रवः सर्वे बुद्बुदयाशवः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ह । प्राची: । अजगन्त । उर: । मण्डूरऽधाणिकी: ॥ ह्वता: । इन्द्रस्य । शत्रव: । सर्वे । बुद्बुदऽयाशव: ॥१३७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
(मण्डूरधाणिकीः) खनिज-लोहे की निधियाँ अर्थात् खाने (यत् ह) जो कि (उरस्=उरसि) पृथिवी की छाती में, (प्राचीः) पूर्व में (अजगन्त) फैली होती हैं, उनके द्वारा, अर्थात् उनसे निर्मित शस्त्रास्त्रों द्वारा, (इन्द्रस्य) सम्राट् के (शत्रवः) शत्रु (हताः) हताहत कर दिये जाते हैं, और वे (सर्वे) सब शत्रु (बुद्बुदयाशवः) पानी के बुलबुलों के सदृश शीघ्र विनष्ट हो जाते हैं।
टिप्पणी -
[प्राचीः=पृथिवी की भूमध्यरेखा से उत्तरायण१ और दक्षिणायन सीमान्त तक पूर्व दिशा अभिप्रेत है। क्योंकि इतने प्रदेश में समय-समय पर सूर्य उदित होता रहता है। उत्तरायण और दक्षिणायन तक फैली भू-पेटी में खनिज-लोहे की खानें प्रायः होती हैं—यह अभिप्राय यहाँ प्रतीत होता है। उरो=उरस्=उरीस; अर्थात् खनिज-लोहे की खानें न तो बहुत गहरी होती है, और न पृथिवी के बाहरी स्तर में, अपितु पृथिवी की छाती में होती है। बुद्बुदयाशवः=बुद्बुद+या+आशु।] [१. उत्तरायण सीमान्त= summer solstice कर्करेखा। दक्षिणायन सीमान्त= winter solstice मकररेखा।]