अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 137/ मन्त्र 4
सु॒तासो॒ मधु॑मत्तमाः॒ सोमा॒ इन्द्रा॑य म॒न्दिनः॑। प॒वित्र॑वन्तो अक्षरन्दे॒वान्ग॑छन्तु वो॒ मदाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒तास॑: । मधु॑मत्ऽतमा: । सोमा॑: । इन्द्रा॑य । म॒न्दिन॑: ॥ प॒वित्र॑ऽवन्त: । अ॒क्ष॒र॒न् । दे॒वान् । ग॒च्छ॒न्तु॒ । व॒: । मदा॑: ॥१३७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सुतासो मधुमत्तमाः सोमा इन्द्राय मन्दिनः। पवित्रवन्तो अक्षरन्देवान्गछन्तु वो मदाः ॥
स्वर रहित पद पाठसुतास: । मधुमत्ऽतमा: । सोमा: । इन्द्राय । मन्दिन: ॥ पवित्रऽवन्त: । अक्षरन् । देवान् । गच्छन्तु । व: । मदा: ॥१३७.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 137; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(मधुमत्तमाः) अत्यन्त मधुर (मन्दिनः) तथा प्रसन्नतादायक (सोमाः) भक्तिरस, (इन्द्राय) जगत् के सम्राट् के लिए (सुतासः) हम प्रजाजनों में प्रकट हुए हैं। (पवित्रवन्तः) पवित्र उपासकोंवाले ये भक्तिरस (अक्षरन्) प्रवाहित हुए हैं। हे भक्तिरसो! (वः) तुमसे प्राप्त (मदाः) अध्यात्म-मस्तियाँ (देवान्) दिव्यगुणी उपासकों को ही (गच्छन्तु) प्राप्त होती हैं।
टिप्पणी -
[१-३ मन्त्रों में राष्ट्र और राष्ट्र-सम्राट् का वर्णन हुआ है। राष्ट्र-सम्राट् द्वारा राष्ट्र को शत्रुओं से रहित करके, और सुरक्षा प्राप्त करके, तथा नैतिक शिक्षा द्वारा जीवनों को सुधारकर, और दीर्घायु प्राप्तकर, अपने जीवनों को सात्विक बनाने की ओर प्रयत्नशील होना चाहिए। तदर्थ परमेश्वर की भक्तिपूर्वक उपासना करनी चाहिए, ताकि मानुष-जीवन सफल हो सके। इसलिए मन्त्र ४ से अध्यात्म-चर्चा का प्रारम्भ हुआ है।]