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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 2/ मन्त्र 4
सूक्त - गृत्समदो मेधातिथिर्वा
देवता - द्रविणोदाः
छन्दः - एकवसाना साम्नी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूक्त-२
दे॒वो द्र॑विणो॒दाः पो॒त्रात्सु॒ष्टुभः॑ स्व॒र्कादृ॒तुना॒ सोमं॑ पिबतु ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒व: । द्र॒वि॒ण॒:ऽदा: । पो॒त्रात् । सु॒ऽस्तुभ॑: । सु॒ऽअ॒र्कात् । ऋ॒तुना॑ । सोम॑म् । पि॒ब॒तु॒ ॥२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
देवो द्रविणोदाः पोत्रात्सुष्टुभः स्वर्कादृतुना सोमं पिबतु ॥
स्वर रहित पद पाठदेव: । द्रविण:ऽदा: । पोत्रात् । सुऽस्तुभ: । सुऽअर्कात् । ऋतुना । सोमम् । पिबतु ॥२.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 2; मन्त्र » 4
भाषार्थ -
(द्रविणोदाः) आध्यात्मिक-बल और आध्यात्मिक-धनरूपी विभूतियों का प्रदाता (देवः) परमेश्वर-देव, (पोत्रात्) पवित्र (सुष्टुभः) उत्तम-स्तुतियोंवाले, (स्वर्कात्) उत्तम-अर्चना के साधनभूत मन्त्रों का स्वाध्याय और जप करनेवाले उपासक से (ऋतुना) ऋतु-ऋतु के अनुसार (सोमम्) भक्तिरस का (पिबतु) पान करे।
टिप्पणी -
[द्रविणम्=“धनं द्रविणमुच्यते यदेनमभिद्रवन्ति। बलं वा द्रविणं यदनेनाभिद्रवन्ति, तस्य दाता” (निरु० ८.१.१)। परमेश्वर जिन उपासकों के भक्तिरसों को स्वीकार करता है, वे या तो मन-वचन-कर्म से पवित्र होने चाहिएँ, या ज्ञानाग्नि-सम्पन्न होने चाहिएँ, ब्रह्मद्रष्टा होने चाहिएँ।]