अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 29/ मन्त्र 5
सूक्त - गोषूक्त्यश्वसूक्तिनौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
सूक्तम् - सूक्त-२९
अ॑सु॒न्वामि॑न्द्र सं॒सदं॒ विषू॑चीं॒ व्यनाशयः। सो॑म॒पा उत्त॑रो॒ भव॑न् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒सु॒न्वाम् । इ॒न्द्र॒ । स॒म्ऽसद॑म् । विषू॑चीम् । वि । अ॒ना॒श॒य॒: ॥ सो॒म॒ऽपा: । उत्ऽत॑र: । भव॑न् ॥२९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
असुन्वामिन्द्र संसदं विषूचीं व्यनाशयः। सोमपा उत्तरो भवन् ॥
स्वर रहित पद पाठअसुन्वाम् । इन्द्र । सम्ऽसदम् । विषूचीम् । वि । अनाशय: ॥ सोमऽपा: । उत्ऽतर: । भवन् ॥२९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 29; मन्त्र » 5
भाषार्थ -
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (विषूचीम्) विषूचिका-रोग-के सदृश विनाश करनेवाली, (असुन्वाम्) भक्तिरस से रहित, (संसदम्) अपितु सांसारिक-भोगों में ही स्थित हुई नास्तिकता-वृत्ति को (व्यनाशयः) आपने विनष्ट कर दिया है। (सोमपाः) आप हमारे भक्तिरस का पान कीजिए। और (उत्तरः भवन्) और उत्कृष्ट तैरानेवाली नौका बन कर हमें भवसागर से तैराइए। [तरः=तरस्= A float, raft (आप्टे)।]