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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 32/ मन्त्र 1
आ रोद॑सी॒ हर्य॑माणो महि॒त्वा नव्यं॑नव्यं हर्यसि॒ मन्म॒ नु प्रि॒यम्। प्र प॒स्त्यमसुर हर्य॒तं गोरा॒विष्कृ॑धि॒ हर॑ये॒ सूर्या॑य ॥
स्वर सहित पद पाठआ । रोद॑सी॒ इति॑ । हर्य॑माण: । म॒हि॒ऽत्वा । नव्य॑म्ऽनव्यम् । ह॒र्य॒सि॒ । मन्म॑ ।नु । प्रि॒यम् ॥ प्र । प॒स्त्य॑म् । अ॒सु॒र॒ । ह॒र्य॒तम् । गो: । आ॒वि: । कृ॒धि॒ । हर॑ये । सूर्या॑य ॥३२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ रोदसी हर्यमाणो महित्वा नव्यंनव्यं हर्यसि मन्म नु प्रियम्। प्र पस्त्यमसुर हर्यतं गोराविष्कृधि हरये सूर्याय ॥
स्वर रहित पद पाठआ । रोदसी इति । हर्यमाण: । महिऽत्वा । नव्यम्ऽनव्यम् । हर्यसि । मन्म ।नु । प्रियम् ॥ प्र । पस्त्यम् । असुर । हर्यतम् । गो: । आवि: । कृधि । हरये । सूर्याय ॥३२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 32; मन्त्र » 1
भाषार्थ -
हे परमेश्वर! आप (रोदसी) द्युलोक और भूलोक को (महित्वा) निज महिमा द्वारा (आ) पूर्णतया (हर्यमाणः) कान्तिमय करते हुए (नव्यं नव्यम्) नई-नई (प्रियं मन्म) प्रिय स्तुतियों को (हर्यसि) चाहते हैं। (असुर) हे प्रज्ञा और प्राणों के दाता! (हरये) इन्द्रियों को विषयों से हरनेवाले (सूर्याय) आदित्य ब्रह्मचारी के लिए आप (गोः) वाणियों के (हर्यतम्) वाञ्छनीय (पस्त्यम्) गृह अर्थात् वेद को (प्र आविष्कृधि) प्रकृष्टरूप में आविष्कृत कीजिए।
टिप्पणी -
[परमेश्वर ने द्युलोक और भूलोक को पूर्णतया कान्ति-सम्पन्न किया है। इसलिए कवि लोग इस कान्ति से मोहित होकर नित्य नई-नई स्तुतिपरक रचनाएँ करते रहते हैं। मन्मभिः=मननीयैः स्तोत्रैः (निरु০ १०.१.५)।]